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________________ +11 ..vvNIYA- - * एकादशम हो - [ १३७ कि कुत्यं सुजनैरत्र धर्मदानादिपूजनम् । स्वकुलाचारनिःपापाचरणं हिसमात्मनः ।।१४।। किमकृत्यं सतां लोके येनाकीयंघसंचयम् । महद्द खमिहामुत्र जायतेऽकृत्यमेव तत् ॥६५॥ क्वात्र मैत्री विधेया च सर्वसत्त्वेषु सज्जनः । एकेन्द्रियाद्यवस्थाप्राप्तेषु नित्यं दयाप्तये ।।६६11 पवं कर्तव्यः प्रमोदोऽत्र चित्तादिशालिषु । मुमृक्षुषु सदा कार्यों गुणवत्सु तपस्विषु ।।७।। करुणा कात्र कर्तव्या रोगक्ले शाद्यशर्मभिः । पीडितेषु महादुःखाब्धिमग्नेषु व जन्तुषु ।।१८।। माध्यस्थं क्वाप्यनुष्ठेयं विपरीतेषु पापिषु । तीव्रमिथ्यात्वकोपादिग्रस्तेषु दुर्जनेषु च ।।६।। क: शत्रुर्विषयो लोके घमं दानं तपो हितम् । दीक्षादिग्रहणं पुसा निषेधयति चैव सः ।।१०॥ को बन्धुः परमो नृ णां तपो दानं हितं वृषम् । बलाद्यः कारयत्यत्र वृत्तादिग्रहणं च सः ॥१.१।। जगत् में श्रेष्ठ गति क्या है ? माता उत्तर देती थीं कि मुनिराज प्रौर इन्द्रादिक जिसकी इच्छा करते हैं, जो निरुपम है तथा नित्य है वही सिद्धगति तीनों लोकों में श्रेष्ठ है ।।१३॥ कभी देवियां पूछती थों यहां सज्जनों को क्या करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि धर्मवानाविक, पूजन, अपने कुलाचार का निर्दोष प्राचरण और प्रास्मा का हित करना चाहिये ॥६४॥ कभी वेवियां पूछती थीं कि लोक में सत्पुरुषों को न करने योग्य क्या है ? माता उत्तर देती थी कि जिससे अकीर्ति और पाप का संचय होता है, तथा इस लोक और परलोक में बहुत भारी दुःख होता है वही कार्य नहीं करने योग्य है ॥६५॥ कभी देवियां पूछती थीं यहां मित्रता किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि सज्जनों को क्या की प्राप्ति के लिये एकेन्द्रियादि अवस्था को प्राप्त हुए सभी जीवों पर निरन्तर मित्रता करना चाहिये ॥६६।। कभी देवियां पूछती थी कि यहां प्रमोदभाव किस पर करना चाहिये? माता उत्तर देती थीं कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्रादि से सुशोभित मोक्षाभिलाषी जीवों पर तथा गुणवान तपस्विजनों पर सदा प्रमोद भाव करना चाहिये ॥१७॥ कभी देवियां प्रश्न करती थीं कि यहां करुणा किस पर करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि रोग क्लेश प्रावि दुःखों से पीडित तथा महादुःन रूपी सागर में निमग्न जीवों पर करुणा करना चाहिये ॥६॥ कभी देवियां पूछती थीं कि माध्यस्थ्यभाव किसमें करना चाहिये ? माता उत्तर देती थीं कि विपरीत, पापी, तीन मिथ्यात्व तथा कोषादि से ग्रस्त बुर्जनों में माध्यस्थ्यभाव करना चाहिये ॥६६ कभी देवियां पूछती थीं कि लोक में शत्रु कौन है ? माता उत्तर देती थीं कि जो पुरुषों के लिये धर्म, वान, तप, हित, तथा दीक्षा आदि ग्रहण करने का निषेध करता है वही शत्रु है ॥१०॥ कभी देवियां पूछती पी कि मनुष्यों का उत्कृष्ट बन्धु कौन है ? माता उत्तर देती थीं कि जो बलपूर्वक तप, दान, हित, धर्म और चारित्र प्रादि को ग्रहण कराता है वही उत्कृष्ट अन्धु है ॥१०१॥ कभी
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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