SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित - कि संबलं परत्रात्र तपोवृत्तयमादिभिः । यत्कृतं दानपूजाधधर्मपृपयादिकं च तत् ।।१०२।। को विवेकी महांल्लोंके बिचारं वेत्ति योनिशम् । देवादेवेघधर्मादो पात्रापात्रे श्रुताश्रुते ।। १.३॥ एयगने का हातमायबा मुभा निगुढा बिबिक्ता या सा कस्येह जगद्धिता ।१०४। प्रहेलिका नित्यनार्या सुरक्तोऽपि कामुकोऽकामुको महान् । सकामोऽप्यतिनि:कामो योऽसौ कोऽत्र नुतोनुतः १०५ प्रहेलिका चित्त हर हरीणां च त्वद्गर्भण जगत्सताम् । फरणाफणीन्द्रभूस्वर्गेऽयंतां देवि गुणात्मिके ! १०६। क्रिपागोपितम् वेधियां पूछती थीं कि इस भव तथा परभव में संवल क्या है ? माता उत्तर देती थीं कि तप चारित्र इन्द्रियवमन तथा दान पूजा आदि के द्वारा जो धर्म पुण्य प्रादिक किया जाता है वही संबल है ॥१०२।। कभी देवियां पूछती थीं कि लोक में महान विवेको कौन है ? माता उत्तर वेती थीं कि जो निरन्तर देव प्रदेव, पाप पुण्य, पात्र अपात्र और शास्त्र अशास्त्र का विवार जानता है वही महान विवेको है ।।१०३॥ प्रहेलिका पूछने वाली किसी देवी ने पूछा कि जो एक होकर भी अनेक है, अक्षर रूप होकर भी अनक्षर है, शुभ है, निगूढार्थ है, पवित्र है और जगत् हितकारी है ऐसी भाषा इस जगत् में किसकी है ? माता ने उत्तर दिया-'फस्य'-क अर्थात् जिनेन्द्र भगवान को ।।१०४। प्रहेलिका किसी अन्य देवी ने पूछा कि जो नित्य नारी मुक्तिरूपी स्त्री में सुरक्त तथा कामुक होकर भी महान अकामुक है, सकाम होकर भी अत्यन्त निष्काम है और नुत स्तुत होकर भी अनुत प्रस्तुत है ऐसा इस जगत् में कौन है ? माता ने उत्तर दिया कः अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् ।।१०५॥ प्रहेलिका क्रियागुप्ति का प्रश्न करने वाली किसी देवी ने कहा कि-हे गुरणों से तन्मय रहने वाली देवि ! तुम अपने गर्भ से हर हरि तथा जगत् के सत्पुरुषों का चित्त (?) यहां 'हर' किया गुप्त है अतः उसे लेकर श्लोक का अर्थ होता है-हे गुणात्मिके देवि, तुम अपने गर्भ के द्वारा हरि-इन्द्र तथा जगत के अन्य सत्पुरुषों के चित्त को हर-हरण करो। तथा फणों से सहित फरपीन्द्र-नागेन्द्र की भूमि-प्रधोलोक और स्वर्ग में तुम प्रर्यता-पूज्यता को (?) यहाँ 'फरण' क्रिया गुप्त है अतः उसे लेकर श्लोक का अर्थ होता है कि तुम अाफगोन्द्र भू स्वर्गे-अधोलोक से लेकर स्वर्ग तक अय॑ता-पूज्यता को फरण प्राप्त होनो।१०६। ( क्रियागुप्ति)
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy