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________________ AAAAAAAAAAAnanaAnnaronnnwr * एकादशम सर्ग - [ १३९ जगद्धितो जगनाथ: सुराधीशो गुणाकरः । त्रिजगज्जनताराध्यः कुर्यात्नस्ते हितं सुतः ।।१७।। निरोष्ठयम् तीर्थकर्ताघसंहर्ता दाता दानं जगत्सप्ताम् । ईहादयोऽत्र निरीहो यो जिनो बयतु सोऽसकृद १०८ निरोष्ठयम् इत्यादिप्रश्नमालानां दुःकराणां सुखाप्तये । प्रयुक्तानां सुरस्त्रीभिः सा' प्रोत्तरं ददौ सती । १०६। जानाना सकलायं देवी जगत्त्रयपण्डिता। विबोधाधीशगर्भस्थमाहात्म्यात्सविशेषतः ॥११॥ धृतिस्तस्या निसर्गेण परिज्ञानेऽभवत्तसम् । प्रज्ञामयं सुचिन्मूर्तिमुदहन्त्या निजोदरे ॥१११।। सा' स्वकीये सुगर्भेऽन्तर्गतं तेजोमयं सुतम् ! दधाना|शुगर्भव प्राची रेजेऽतिरूपिणी ।।११।। नररत्नेन तेनासो गर्भस्थेन परां द्युतिम् । बभार च श्रियं श्रेष्ठां रत्नगर्भव भूमिका ।।११३॥ स जनयुदरस्थोऽपि मास्या: पीडामजीप्रनत् । दर्पणे प्रतिबिम्बोऽत्र याति कि विक्रिया क्वचित् ११५ निरोष्ठय काध्य की रचना करती हुई किसी देवी ने कहा कि जो जगत् का हितकारी है, जगन्नाथ है, देवों का स्वामी है, गुरणों की खान है और तीनों जगत् की जनता के द्वारा पाराघनीय है ऐसा तुम्हारा पुत्र हमारा हित करे ॥१०७॥ निरोष्ठय पुनः निरोष्ठच कविता की रचना करती हुई किसी देवी ने कहा कि जो तीर्थकर्ता है, पाप संहर्ता है, जगत् के सत्पुरुषों को दान का दाता है, और ईहा-उधम-पुरुषार्थ से सहित होकर भी निरीह-उद्यम से रहित है ( पक्ष में इच्छा से रहित है ) वह जिनेन्द्र अनेकवार जयवंत हो ॥१०॥ निरोष्ठ्य इस प्रकार सुख प्राप्ति के लिये देवाङ्गनामों के द्वारा पूछे गये अतिशय कठिन प्रश्नों का ठीक ठीक उत्तर वह शीलवती माता देती थी॥१०६।। तीनों जगत् में निपुण देवी पहले ही समस्त पदार्थों को जानती थी परन्तु उस समय गर्भ में स्थित तीन ज्ञान के स्वामी जिन बालक की महिमा के कारण विशेष रूप से जानने लगी थी ॥११०। बुद्धि से तन्मय, चतन्य मूति जिन बालक को अपने उदर में धारण करने वाली उस जिन माता को अनेक पदार्थो के जानने में स्वभाव से ही संतोष होता था ॥१११॥ अपने उत्कृष्ट गर्भ में अन्तर्गत तेजोमय पुत्र को धारण करती हुई अतिशय रूपवती जिनमाता सूर्यरश्मियों को गर्भ में धारण करने वाली पूर्व दिशा के समान सुशोभित हो रही थी॥११२॥ गर्भ स्थित उस नररत्न से वह माता रत्नगर्भा भूमि के समान उत्कृष्ट कान्ति तथा श्रेष्ठ शोभा को धारण कर रही थी ॥११३।। माता के उदर में स्थित होने पर भी वह जिन बालक माता को पीडित नहीं कर रहा था सो ठोक ही है क्योंकि यहां दर्पण में पड़ा प्रतिबिम्ब १. सा युक्त्या प्रोतां ददौ ख. २. सा स्वकीयगर्भान्तर्गत तेजोमय सुतम् .
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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