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________________ १४० । * श्री पार्श्वनाथ परित. त्रिवली भड- गुरं तस्यास्तथैवास्थातनूदरम् । तथापि ववृधे गर्भः प्रभावं तज्जिनेशिनः ।।११।। शकरण प्रहितेन्द्राणी सिषेवे तां परां सतीम् । प्रप्स रोभिः समं भक्त्या निगुढं जिनभक्तये ।११६॥ किमत्र बहुनोक्तेन सैका श्लाघ्या जगत्त्रये । या पत्युर्जगतां स्रष्ट्री बभूव भुवनाम्बिका ॥११॥ पुनश्चकार रंदोऽत्र नवमासान्नृपालये । रत्नस्वर्णमयं पञ्चाश्चर्य भूत्या शुभाप्तये ।। ११८।। नवमे मासि संपूर्णे पौषे मासि वृषोदयात् । कृष्ण रक्षेऽनिले योगे शुभे ोकादशीतिथी ।।११।। शुभलग्नमुहूत्तदिौ सुषुवेऽतिसुखेन सा । सती देवकुमारीभिः सेव्या तीर्थकर सुतम् ।।१२०।। ज्ञानत्रयपरं धीरं जगन्नाथं जगद्गुरुम् । धर्मतीर्थस्य कर्तारं जगदाश्चर्यकारकम् ॥१२१।। मालिनी इति सुकृतविमाकाद्विश्वतत्त्वैकदीपो। नृसुरपतिभिरुच्चैरचितो वन्दितश्च । शिवसुख मिह भोक्तु कर्म हन्तु सुगर्भा-दसमगुण निधानः प्रादुरासी जिनेन्द्रः ।।१२२।। धर्माद्दिव्यसुखामृतं निरुपम भुक्त्वा नुदेवोद्भव, ___ जातस्तीर्थकरो जगत्त्रयगुरुविश्वकचूडामणिः । क्या कहीं विकार को प्राप्त होता है ? अर्थात नहीं ॥११४॥ त्रिवलियों से सुन्दर उसका उबर यद्यपि पहले के ही समान कृश था तथापि गर्भ बढ़ रहा था। वास्तव में यह जिनेन्द्र का ही प्रभाव था ।।११५॥ इन्द्र के द्वारा भेजी हुई इन्द्राणी अप्सराओं के साथ गुप्तरूप से जिनभक्ति के लिये भक्तिपूर्वक उस उत्कृष्ट सती की सेवा करती थी ॥११६।। इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है? जो त्रिलोकीनाथ की जन्मदात्री होने से जगन्माता थी ऐसी बही एक तीनों जगत में श्लाघनीय थी ।।११।। कुबेर ने पुनः नौ माह तक कल्याण की प्राप्ति के लिये वैभव पूर्वक राजभवन में रत्म और स्वर्णमय पञ्चाश्चर्य किये ॥११॥ नवम मास के पूर्ण होने पर देवकुमारियों के द्वारा सेवनीय उस सती ने पुण्योदय से पौष कृष्ण एकादशी के दिन अनिल नामक शुभयोग के रहते हुए शुभलग्न और शुभ मुहर्त में सुख से तीर्थकर पुत्र को उत्पन्न किया ॥११६--१२०॥ वह तीर्थकर पुत्र तीन ज्ञान का धारक था, जगत् का स्वामी था, जगद्गुर था, धर्मतीर्थ का कर्ता था और जगत में प्राश्चर्य उत्पन्न करने वाला था ॥१२१॥ इस प्रकार पुण्योदय से जो समस्त तस्धों को प्रकाशित करने के लिये प्रतितीय बीपक थे, मनुजेन्द्र और देवेन्द्रों के द्वारा पूजित तथा नमस्कृत थे ऐसे अनुपम गुणों के भाण्डार जिनेन्द्र, मोक्षसुख का उपभोग करने तथा कर्मों को नष्ट करने के लिये उसम गर्भ से प्रकट हुए ॥१२२॥ पार्श्वनाथ का जीव, धर्म के प्रभाव से मनुष्य और देवगति में होने
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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