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* एकावशाम सर्ग .
[ १३१ अथ सौधर्मनायः प्राह श्यादिदेवताः प्रति । जिनगावतारं स ज्ञात्वा धर्माय घमंधीः ।।३।। विश्वसेनयतेबाह्म याः सद्गर्भेऽवतरिष्यति ।श्रीपार्श्वनाथ एवाय तीर्थकर्ता जगद्गुरुः ।।४।। तस्या गत्वा शुधिद्रव्य भवन्त्यो गर्भशोधनम् । कुरुवं भक्तितः सेवां स्वं स्वं नियोगमाशु च।।१।। मूर्नादाय तदाज्ञा साः कृत्वा तद्गर्भशोधनम् । स्वर्जे: शुचिमहाद्रव्यस्तस्याः सेवां व्यधुस्तराम्।४२ श्रीही विश्व कीर्तिश्च बुद्धिलक्ष्मीरिमाः स्त्रियः । श्रियं लज्जा सुधैर्य न स्तुति बोधि सुसंभवम् ।।४।। तस्या अभ्यर्णवतिन्य मादधुः स्वान्गुणानिमान् । स्वभक्त्या परिचारिण्यो धर्महृष्टा वृषाप्तये ॥४४॥ निसर्गनिर्मला राशी ताभिः संस्कारिता पुन: । तगं राजति दिव्याला संस्कृतेधाग्निना मणिः।४५॥ पैशाखकृष्णपक्षस्य द्वितीयायां निशात्यये । विशास्त्रः सुलग्नादौ सुमुहूर्ते सुरेश्वरः ॥४६॥ अवतीर्णो दिवएव्युत्वा भुक्त्वा भोगान सुनिर्मले । राझ्या गर्भ निरोपम्ये शुद्धस्फाटिकषिभे ।।४।। तद्गर्मागमनं ज्ञात्वा स्वचिह्नावधिभिद्रुतम् । स्वस्ववाहनमारूढा: सकलत्राः सनिर्जसः ।।४।।
सवनन्तर धर्मबुद्धि सौधर्मेन्द्र ने यह जानकर कि धर्म के लिए तीर्थकर का गर्भावतरण होने वाला है, श्री प्रावि देवियों से कहा ॥३६॥ राजा विश्वसेन को बाह्मी देवी के प्रशस्त गर्भ में प्राज ही अगगुरु श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर प्रवतीर्ण होंगे इसलिये भाप लोग माकर पवित्र द्रव्यों द्वारा उनका गर्भशोधन करो, भक्ति से उनकी सेवा करो और शीघ्र ही अपना अपना नियोग पूरा करो ।।४०-४१।। श्री प्रादि देवियाँ शिर से सौधर्मेन्द्र की प्रामा को स्वीकृत कर तथा स्वर्ग में उत्पन्न होने वाले पवित्र महाद्रव्यों से गर्भशोषन कर माता की सेवा करने लगीं ॥४२॥ श्री देवी ने श्री को, ह्री देवी ने लम्मा को, सि देवी ने उसम पर्य को, कीतिदेवी ने स्तुति को, बुद्धि देवी ने बुद्धि को और लक्ष्मी देवी ने उत्सम वैभव को उत्पन्न किया था। इस प्रकार जिनमाता के समीप रहने वाली सपा अपनी भक्ति से उनको परिचर्या करने वाली इन देवाङ्गनामों ने धर्म से प्रसन्न हो धर्म की प्राप्ति के लिये जिनमाता में अपने इन गुणों को अच्छी तरह धारण किया था ।।४३-४४॥ रामी स्वभाव से ही निर्मल थी फिर उन देवियों के द्वारा संस्कारित की गयी थी प्रतः सुन्दर शरीर को धारण करने वाली यह रानी अग्नि के द्वारा संस्कारित मरिण के समान अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥४५॥
बैशाख मास के कृष्णपक्ष सम्बन्धी-द्वितीया तिथि में विशाखा नक्षत्र, उत्तमलग्न मावि तथा शुभमुहूर्त के रहते हुए प्रातःकाल के समय वह इन्द्र भोग भोग कर स्वर्ग से व्युत हुमा तथा रानी के अत्यन्त निर्मल, निरुपम और शुद्ध स्फटिक के सहश गर्भ में प्रवत्तीर्ण हुमा ॥४६-४७।। अपने चिह्नों से उत्पन्न अवधिज्ञान के द्वारा पाश्र्व जिनेन्द्र का गर्भावत
र एवाथ २. स्वाँस्वनः ।