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* श्री पार्श्वनाथ चरित *
स्वाङ्गभूषादिदीप्त्यवतयन्तो नभोऽङ्गलम् । गीतवाद्यजयध्वानः पूरयन्तो दिशोऽखिलाः ॥४६॥ चतुणिकाय देवेशा ग्राजग्मुर्भू पमन्दिरे | गर्भकल्या निष्पत्यै सोत्सवा धर्मसिद्धये ॥५०॥ मृपाणं पुरीं खं च सुवीथीश्च तदाभराः । रुद्ध्वा तस्थुः परीवारैर्योषितः सुरसैन्यकाः ।। ५१ ।। जिन पित्रोदा चक्र: कल्याणाभिषवोत्सवम् । हेमकुम्मै महाभूत्या सुरेशा जिनभक्तिकाः || ५२ || त्रिःपरीत्य ततो नत्वा गर्भस्थं तीर्थनायकम् । जिनेन्द्रपितरो भक्त्या प्रपूज्यामरनायकाः ।।१३।। दिव्यभूषण वस्त्रार्थं दिक्कुमारी नियोज्य ते । शुश्रूषाय जिनाम्बायाः प्रययुः स्वं स्वमाश्रयम् । ५४ । काश्चिन्मङ्गलधारिण्यः काश्चित्ताम्बूलदायिकाः । काश्चिन्मज्जन पालिन्यस्तस्याश्चासन् सुराङ्गना: ५५ काश्चिन्महानसे 1 युक्ताः पादसंवाहने पराः । शय्याविरचने काश्चिच्चास्या श्रासनसंस्थितौ ।। ५६ ।। प्रसाधनविधौ काचित्स्पृशन्तो तन्मुखाम्बुजम् । सुगन्धद्रव्यपारिस्था धाविव बभौ मुदा ||५७|| | विरेजे कल्पवल्लीय शाखास्रोद्भिनभूषणा ।। ५८ ।। काचिदाभरणान्यस्मै ददती मृदुपामिना
र जानकर, जो शीघ्र ही अपने अपने वाहनों पर श्रारूढ़ हैं। स्त्रियों से सहित हैं, देवों से परिवृत हैं, अपने शरीर तथा श्राभूषण प्रादि की कान्ति के समूह से गगनाङ्गण को प्रकाशित कर रहे हैं तथा गीत, बाबित्र तथा जय जय की ध्वनि से समस्त दिशाओं को पूर्ण कर रहे हैं ऐसे, उत्सवों से युक्त चारों निकायों के इन्द्र धर्मसिद्धि के लिये राजमहल में श्रा पहुंचे ।।४६ - ५० ।। उस समय देव, देवाङ्गनाएं और देवों के सैनिक अपने घरों से राजाङ्गरण, नगरी, प्राकाश और गलियों को रोककर स्थित थे अर्थात् सब स्थानों पर देव ही देव दृष्टिगोचर होते थे ।। ५१ ।। जिनभक्त इन्द्रों ने हर्षपूर्वक बड़े वैभव से जिनेन्द्र भगयात् के माता पिता का सुवर्ण कलशों के द्वारा गर्भकल्याणक सम्बन्धी अभिषेकोत्सव किया ।। ५२ ।। तदनन्तर इम्मों ने गर्भस्थित तीर्थंकर की तीन प्रवक्षिरणाए देकर उन्हें नमस्कार किया। दिव्य प्रासूषरण तथा वस्त्र आदि से उनके माता पिता की भक्तिपूर्वक पूजा की तथा जिनमाता की सेवा में दिवकुमारी देवियों को नियुक्त किया । पश्चात् यह सब कर चुकने के बाद वे अपने अपने स्थान पर चले गये ।।५३-५४।।
कोई बेवाङ्गनाएं जिनमाता के प्रागे दर्पण प्रावि माङ्गलिक द्रव्य धारण करती थीं, कोई पान देतीं थीं और कोई स्नान कराती थीं । ५५। कोई रसोई घर में नियुक्त रहती थीं, कोई पैर दाबने में तत्पर थीं, कोई शय्या बिछाने में मग्न थीं और कोई ग्रासनों को अच्छी तरह रखने में लीन रहती थीं ।। ४६ ।। प्रसाधन-सजावट के समय उसके मुखकमल का स्पर्श करती तथा सुगन्धित द्रव्य को हाथ में लिए हुए कोई देवी हर्ष से धुलाने वाली के समान सुशोभित हो रही थी ।। ५७ ।। कोमल हाथ से माता के लिये श्राभूषण देती हुई
१. भोजनपाकशालायाम् ।