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________________ * एकादशम सगँ * [ १३३ बासः क्षौम त्रजो रम्या बहुधा भोगसंपदः । तस्मै समर्पयामासुः काश्चित्कल्पलता इव ।। ५६ ।। भङ्गरक्षाविधी काश्चिदुत्खाता सिकराम्बुजाः । तदभ्यर्णे बभुर्दभ्यः शम्या' वा खेऽतिनिर्मले ।। ६० ।। पुष्प रेणुभिराकी सम्ममार्जुर्नृपाङ्गरणम् । काश्चिदन्याः प्रकुर्वन्ति चन्दनच्छटयोक्षितम् ।। ६१ । महीमाद्रशुकैः काचिशिर्भमाजुर्मुदा पराः । कुर्वते वलिविन्यासं रत्नचूर्णेर्मनोहरम् ।।६२।। कल्पवृक्ष जपुष्पौधेरन्या उपहरन्ति तम् । काश्चित्खे निशि सीधाग्रे कुर्वति मणिदीपकान् ६३ । नभोभागे स्थिता: काश्चिदनालक्षितमूर्तयः । रक्ष्यतां यत्नतो राज्ञीत्युच्चेगिरमुदाहरन् ।। ६४ ।। जल कोड। दिभिस्ताश्च कदाचिद्वाद्यवादनैः । कथागोष्ठीभिरन्येद्युर्गीतगानं मनोहरैः ।। ६५ ।। रम्यविलासहास्य जल्पनैः । विचित्रवेषधारिण्यो देव्यस्तस्मै धृति दधुः ||६६॥ शयने यत्र कुत्रचित् । कुर्वन्ति विविध सेवां सर्वत्र ताः सुराङ्गनाः ॥६७॥ रेजे जिनाम्बा परिचर्यया । उपनीता जगल्लक्ष्मीरिवकध्यं कथञ्चन ।। ६८|| कोई देवी उस कल्पलता के समान सुशोभित हो रही थी जिसकी शाखा के अग्रभाग में आभूषण प्रकट हुए हैं ।। ५६ ।। कोई देवियां कल्पलतानों के समान उसके लिये रेशमी वस्त्र मनोहर मालाएं और प्रनेक प्रकार को भोग सम्पदाएं समर्पित कर रही थीं ।। ५६ ।। श्रङ्गरक्षा के कार्य में जिन्होंने अपने करकमलों से सलवार उठा थी ऐसी कितनी ही afari उसके निकट ऐसी सुशोभित हो रही थीं जैसी अत्यन्त निर्मल प्राकाश में बिजलियां सुशोभित होती हैं ।। ६० ।। कोई देवियां फूलों की पराग से व्याप्त राजाङ्गण को अच्छी तरह झाड़ती थीं और कोई उसे चन्दन से सींचती थीं ॥ ६१ ॥ कोई हर्वपूर्वक मीले कपड़ों से पृथिवी की अच्छी तरह साफ करती थीं और कोई रत्नों के चूर्ण से उस पर मनोहर वेलबूटे बनाती थीं ।। ६२ ।। कोई कल्पवृक्ष उत्पन्न फूलों के समूह से उन वेलबूटों पर उपहार चढ़ाती थीं और कोई रात के समय प्रकाश तथा महल के अग्रभाग पर मणिमय दीपक प्रज्वलित करती थीं ।। ६३ ।। जिनका शरीर नहीं दिख रहा था ऐसी feart ही देवियां श्राकाश में स्थित होकर उच्चस्वर से यह शब्द कह रही थीं कि रानी की यत्न से रक्षा की जाय ।। ६४ ।। विचित्र वेषों को धारण करने वाली वे देवियां कभी जलक्रीडा श्रादि के द्वारा, कभी बाजों के बजाने से, कभी कथा की गोष्ठियों से, कभी मनोहर गीतों गाने से, कभी रमणीय नृत्यों से और कभी विलासपूर्ण हास्य विनोद से उसे संतोष प्रदान कर रही थीं ।। ६५-६६ ।। ये देवियां उसके जहां कहीं जाने, ठहरने और सोने आदि के समय उसकी सब जगह विविध प्रकार को सेवा करती थीं ||६७।। इस प्रकार उन देवियों के द्वारा की हुई सेवा से जिनमाता ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों १. विद्युत इव । अन्यदा नर्तन गमने वासने तस्याः इति तत्कृतथा
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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