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________________ * त्रयोदशम सर्ग * [ १५७ परिणहारेण कण्ठेऽस्य कुर्याच्छोभा परा च सा । बाह्वोः कटककेयूरमुद्रिकाङ्गदभूषणः ।। दधे मणिमयं दाम किङ्किणीभिविराजितम् । सा कट्यामस्य कल्पाङ्गधारोहनियमुहत् ।।१०।। पादाब्जी गोमुखाभासमरिणभिः शोभिती व्यधात् । झारितो सरस्वत्या कृतसेवाविवात्र सा ।।१।। इत्यादिविविधैः संस्कारश्च मण्डनकोटिभिः । निसर्गरुचिराङ्गस्य परां शोभा व्यधाच्छची ॥१२॥ तेजोनिधिरिवोद्भूतो यशोराशिरिवोजिता । सौभाग्यस्य परा कोटि: संपूवेन्दुमण्डलम् ॥१३॥ सौन्दर्यस्येव सन्दोहः पुण्यागूनामिवाकरः । लक्ष्म्यास्थानस्तदा सोऽभाषितोऽत्रासने विभु॥१४ मणिभूषणविन्यस्तस्वाङ्गकान्तिप्रदीप्तिभिः । कल्पशाखीव रेजे स शाखाग्रस्थविभूषणः ।।१५।। इति प्रसाध्य तं देवं शक्रोत्सङ्गगतं शची। विस्मयं स्वयमायासीत्पश्यन्ती रूपसम्पदम् ।।१६।। तद्रूपातिशयं दृष्ट्वा हृत्तृप्तिजनक हरिः । 'स्पृहालुस्तं पुनद्रष्टु सहस्राशोऽभवत्तदा ।।१७।। निमेषविमुग्वैदिव्यैर्लोचनस्तं जगद्गुरुम् । निधान वा मणीनां च ददृशुः कृतकौतुकाः ।।१८।। से चन्द्रमा को जीतने वाले कुण्डलों से हर्षपूर्वक अलंकृत किया था । उसने मरिणयों के हार से इनके कण्ठ में तथा कटक, बाजूबन्द, मुद्रिका और प्रगाव प्रादि प्राभूषणों के द्वारा इनकी भुजाओं में परम शोभा उत्पन्न की थी ॥६॥ उसने इनकी कमर में क्षुद्रष्टिकानों से सुशोभित, तथा कल्पवृक्ष के अंकुर की शोभा को धारण करने वाली मरिणमय मेलला पहिनाई थी ॥१०॥ उसमे इनके चरणकमलों को गोमुख के समाम माभा बाले मरिणयों से सुशोभित किया। उनके झाङ्कार से युक्त चरण कमल ऐसे जान पड़ते थे मानों सरस्वती ही उनकी सेवा कर रही हो ॥११॥ इत्यादि नाना प्रकार के संस्कारों और प्राभूपरपों के अग्रभाग के द्वारा इन्द्राणी ने स्वभावतुभग शरीर वाले जिनबालककी परम शोभा उत्पन्न की ॥१२॥ जो प्रकट हुए प्रताप के मानों भाण्डार थे, अतिशय विस्तृत यशोरासि के समान थे, सौभाग्य की परम कोटि थे अथवा संपूर्ण चन्द्र मण्डल के समान थे, सौन्दर्य के समूह थे, पुण्य परमाणुषों की खान थे और लक्ष्मी के सभागृह थे ऐसे वे विभूषित विभु प्रासन पर सुशोभित हो रहे थे।।१३-१४।। मणिमय प्राभूषणों से युक्त अपने शरीर को कान्ति और दीप्ति से वे उस कल्पवृक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे जिसकी शाखाओं के अग्रभाग पर आभूषण स्थित है ॥१५॥ इस प्रकार इन्द्र की गोद में स्थित उन जिनबालक को अलकृत कर उनकी रूपसंपदा को देखने वाली इन्द्राणी स्वयं विस्मय को प्राप्त हो रही थी ॥१६॥ हृदय में संतोष उत्पन्न करने वाले उनके रूपातिशय को देखकर इन्द्र उन्हें फिर से देखना चाहता था इसी लिये क्या वह उस समय सहस्राक्ष-हजार नेत्रों वाला हो गया था ॥१७॥ कौतुक १. 'स्पृहयालुः' इति प्रसिद्ध रूपम् ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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