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*श्री पारवनाथ चरित विश्वेऽसुराः सुराः शक्रा: शभ्यो देव्योऽन्स रोवराः । निरौपम्यं तदात्ययं जगदानन्ददायिनम् ॥१६॥ ततस्तं स्तोतुमिन्द्राद्याः प्राकमन्तामरा मुदा । माहात्म्यं प्रकटीकृत्य पुष्कलं तीर्थकद्भवम् ॥२०॥ स्वं देव परमानन्दं दातुमस्माकमुद्गतः । बोधितु जगतो यद्भानुरब्जाकरान् भुवि ।।२१॥ मिथ्यामानान्धकूपेऽस्मिनिपतन्तमिमं जनम् । ऊरिष्यसि नाप त्वं मंहस्साबलम्बनः ।।२२।। भवद्वारिकरणः स्वामिन् दुश्छेचं नो मनस्तमः । पुरा प्रलीयते लोके यथा भास्वत्करेस्तमः ।।२३।। स्वं देव जगतां भर्ता बन्धुस्त्वं कारणं विना । त्वं त्राता भवभीरूणां त्वं पिता च हितकरः ॥२४॥ रवं पूसात्माखिलान्भध्यान्पुनासि धर्मवृष्टिभिः । दुःकर्मव्याधिशान्त्यै त्वं दास्यस्योषषं सताम् ।।२।। वरिष्यन्ते गुणाः सर्वे वपुषामा प्रभो त्वयि । संख्यातिगा ध्र वं चान्धौ शुक्लपक्षे यपोर्मयः ।।२६।। प्रस्नासपूतगात्रस्त्वं स्नापितोऽद्यात्र वारिभि: । नः पवित्रयितु चित्त दु:कर्मादिमलीमसम् ।।२७॥ से युक्त समस्त सुर, असुर, इन्द्र, इन्द्राणियों, देवियों और अप्सराओं ने निरुपम तथा जगत को प्रत्यधिक प्रानन्द देने वाले मरिणयों के निधान के समान उन जगत्गुरु को टिमकार रहित विम्य नेत्रों से देखा था ॥१८-१६॥
तदनन्तर इन्वादिल देष, तीवार नामकर्म से होने वाले बहुत भारी माहात्म्य को प्रकट कर हर्षपूर्वक उनकी स्तुति करने के लिये तैयार हुए ॥२०॥
हे देव ! जिस प्रकार पृथिवी पर जगत् को जागृत करने और कमल धन को विकसित करने के लिये सूर्य उदित होता है उसी प्रकार प्राप हम सब को परमानन्द देने तथा जगद को बोधित-ज्ञानयुक्त करने के लिये उदित हुए हैं ॥२१॥ हे नाथ ! इस मिथ्याज्ञान रूपी अन्धकूप में पड़ते हुए इस जन समूह को पाप धर्मरूपी हस्त का अवलम्बन देकर निकालेंगे ॥२२॥ हे स्वामिन् ! जिस प्रकार सूर्य की किरणों से अन्धकार मष्ट हो जाता है उसी प्रकार प्रापके वचनरूपी किरणों से हमारे मन का दुश्छेद्य कठिनाई से छेवन करने योग्य प्रमानान्धकार पहले ही नष्ट हुमा जाता है ॥२३॥ हे देव ! तुम जगत् के स्वामी हो, तुम जगत् के अकारण बन्धु हो, तुम संसार से भयभीत मनुष्यों के रक्षक हो और तुम हितकारी पिता हो ।।२४।। पवित्र प्रात्मा से युक्त तुम, धर्मवृष्टि के द्वारा समस्त भव्य जीवों को पवित्र करते हो और तुम वुष्कर्मरूपी रोग को शान्ति के लिये सत्पुरुषों को पौषध प्रदान करोगे ।।२५॥ हे प्रभो ! जिस प्रकार शुक्ल पक्ष के समय समुद्र में असंख्य लहरें बढ़ने लगती हैं उसी प्रकार निश्चित ही आप में शरीर के साथ समस्त गुण बढ़ने लगेंगे ॥२६॥ प्रापका शरीर तो स्नान के बिना ही पवित्र है, फिर प्राज जो यहां जल के द्वारा स्नपन किया गया है वह दुष्कर्म प्रावि से मलिन अपने चित्त को पवित्र करने के
१. प्रारभन्त २. शरीरेण सह ।