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________________ .पष्ठ सर्ग . षष्ठः सर्गः श्रीमते विश्वनाथाय जगदानन्ददायिने । नम: श्रीपार्श्वनाथाय मूर्ना तत्पासिद्धये ॥१॥ पथानणे स्फुरदीप्रे' ह्य पपादशिलातने । मन्तमुंहूतकालेन प्राप्य संपूर्णयौवनम् ॥२॥ उत्थाय रत्नपल्यान्महतीतूलिकान्वितात् ।अहमिन्द्रो दिशोऽपश्यत् साश्चर्योऽतिमनोहराः ।।३।। घममूतिमिघातीव दीप्ताहमिन्द्रसंचयम् । विमानर्धादिकं दृष्ट्वारविज्ञानमवाप सः ॥४॥ समस्तं प्राग्भवं शारया स्ववृत्तजमितं फलम् । स्वस्य तत्रोद्भवं भानात्सचाभूनिश्चलो वृषे ॥५॥ नतोऽमा दिव्यसामग्या सर्वाभरणभूषितः । प्रत्यक्षदृष्टसद्धर्मफलोऽगाजिनमन्दिरम् ॥६॥ गन्नहेममये तत्र जिनागारे जिने शिनाम् । प्रनाम जिनार्चाः स भामुकोटवधिकप्रभाः ।।७।। उत्थायानुमहाभूत्या चकारोच्चमहामहम् । विश्वाभ्युदयकर्तारं जिनेन्द्राणां स्वसिद्धये ॥८॥ - . ..- -. षष्ठ सर्ग अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मी से युक्त, सब के स्वामी तथा जगद के समस्त जीवों को ग्रानन्द देने वाले श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र को मैं उनकी निकटता प्राप्त करने के लिये शिर मे नमस्कार करता हूँ ॥१॥ तदनन्तर अमूल्य तथा प्रत्यन्त देवीप्यमान उपपाव शिलातल पर अन्तर्मुहूर्त में संपूर्ण यौवन को प्राप्त कर यह अहमिन्द्र बहुतभारी तूलिका-हई से सहित रलमय पलंग से उठा और प्राश्चर्य से कित हो अतिशय मनोहर दिशामों को देखने लगा ॥२-३॥ धर्म की भूति के समान अत्यन्त देदीप्यमान महमिन्द्रों के समूह तथा विमानों को संपदा प्रादि को देखकर वह अवधिज्ञान को प्राप्त हुमा ॥४॥ उस अवधिज्ञान से अपने समस्त पूर्वभव, अपने चारित्र से उत्पन्न फल तथा प्रपनी वहां उत्पत्ति को जानकर वह धर्म में निश्चल स्थिर हो गया ॥५॥ तवनन्तर जो समस्त प्राभूषणों से विभूषित है और सबर्म का फल जिसने प्रत्यक्ष देख लिया है ऐसा वह अहमिन्द्र विन्यसामग्री के साथ जिम मन्दिर गया ॥६॥ उसने रत्म नथा स्वर्णमय जिन मन्दिर में जिनेन्द्र भगवान को करोड़ों सूर्य से अधिक प्रभा पाली जिन प्रतिमानों को प्रणाम किया ॥७॥ फिर खड़े होकर बहुत भारी विभूति से प्रारम सिद्धि के । न ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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