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________________ • विशतितम सर्ग [ २७१ प्रापादमस्तकान्तं यथा बद्धो बन्धनेह है। । मोचना लभते सौख्यं तथा मुक्तो विधेः क्षयात् । १२२ । तस्मात्कर्मातिगो जter एरण्डादिकबीजवत् । समयेन प्रजेश्वं यावल्लोकाग्रमस्तवम् ॥ १२३॥ तत्रैवास्यान्निरावाषः सोऽग्रे गमनवजितः । सिद्धो धर्मास्तिकायाभावादनन्त सुखान्धिगः १११२४ ।। तत्र मुक्ते निराबाधं स्वात्मजं विषयातिगम् । वृद्धिह्रासव्यपेतं स सिद्धः शुद्धो 'महत्सुखम् ।। १२५ ।। दुःखातीतं निरोषम्य शाश्वतं सुखसंभवम् । धनन्तं परमं ह्यन्यद्रव्यानपेक्षमेव हि ।। १२६ ।। यद्देवमनुजैः सर्वैः सुखं त्रैलोक्यगोचरम् । भुक्तं तस्मादनन्तं सज्जायते परमेष्ठिनाम् ।। १२७ ।। एकेन समयेनैव भूषितानां गुरणाष्टकैः | नित्यानामशरीराणां सर्वोत्कृष्ट म्पयच्युतम् ॥। १२६ ।। मालिनी विविधविभङ्ग: सप्ततत्वानि मुक्त्ये हगवगम सुबीजानि प्ररूप्यात्मवान्यः । परमुदमपि भव्यानां चकार स्ववाग्रमृतपरमतुल्यैर्मेऽत्र दद्यात्स्वमक्तिम् ॥३१२६ ॥ वाला द्रष्य मोक्ष होता है ।। १२१ ।। जिस प्रकार पैर से लेकर मस्तक पर्यन्त सुदृढ़ बंबों से गंधा हुधा मनुष्य बंधन छूटने से सुख को प्राप्त होता है उसी प्रकार कर्मों के क्षय मुक्त जीव सुख को प्राप्त होता है ।। १२२ ।। मोक्ष से कर्मबन्धन रहित जीव एरण्ड आदि के बीज के समान एक समय मात्र में लोकाप्रभाग तक ऊपर की भोर जाता है ।। १२३ ।। वह मुक्त जीव निराबाधरूप से उसी लोकाप्रभाग में स्थित हो जाता है क्योंकि धाने धर्मास्तिकाय का प्रभाव होने से गमन रहित होता है। मुक्तजीव घनन्त सुखरूपी सागर में निमग्न रहता है ।। १२४ ।। वहां वह शुद्ध, सिद्ध परमात्मा, निराबाध, स्वकीय प्रात्मा से उत्पन्न, विषयातीत वृद्धि और ह्रास से रहित महान् सुख का उपभोग करते हैं ।। १२५ ।। feaों का वह सुख, दुःखों से रहित है, निरुपम है, स्थाई है, प्रात्मसुख से उत्पन्न है, अनंत है, उत्कृष्ट है औौर परदूष्य से निरपेक्ष है ।। १.२६ ।। समस्त मनुष्य और देवों के द्वारा तीन लोक सम्बंधी जो सुख प्राज तक भोगा गया है उस सुख से सिद्ध परमेष्ठी का सुख धनत गुरगा होता है ।। १२७ ।। जो एक ही समय में भाठ गुणों से विभूषित हैं, नित्य हैं तथा शरीर रहित हैं ऐसे मुक्त जीवों का सुख सर्वोत्कृष्ट तथा विनाश से रहित होता है ।।१२८| इस प्रकार शुद्ध मात्म स्वरूप को प्राप्त हुए जिन पार्श्वनाथ भगनान् ने उत्कृष्ट अमृत के तुल्य अपने वचनों से उत्पन्न नाना भङ्गों के द्वारा मुक्ति के लिये सम्यग्दर्शन पौर सम्यग्ज्ञान के उत्तम बीज स्वरूप सात तत्त्वों का मिरुपरंग कर भव्य जीवों को उत्कृष्ट धानंद उत्पन्न किया था वे पार्श्वनाथ जिनेन्द्र इस जगत् में मेरे लिये अपनी शक्ति प्रदान करें ।। १२६ ।। १. महान् सुखम् ० ० ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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