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. सप्तश सर्ग -
[ २२७ मनन्तं दर्शनं ज्ञानं वीर्य क्षायिकदर्शनम् । वृत्त दानं च लामं भोगोपभोगौ किलेत्यही ।१०। नव केवललपी: स स्वीपकार जिनाग्रणीः । धातिकर्मक्षयोत्पता लोकेऽसाधारणाः परा: १०१।
मालिनी भगवति जिलमोहे केवलज्ञानभूत्या स्फुरति सति सुरेन्द्राः प्रानमन् भक्तिभाराव । नभसि अनिनादो निर्जराय जुम्मे सुरपटहरवौघ रुखमासीत्तदा सम्' ।।१०२॥
सुरकुजकुसुमानो दृष्टिरापप्तदुमच-भ्रंमरघननिनादर्गीतमातन्वतीय । शिशिरतरतरङ्गानास्पृसन्मातरिश्वा मृदुतरमभितस्सम्यानशे दिग्मुलानि ॥१०३।। सकलविभवपूर्ण धर्मरत्नादिखानि बहुविधमणिसदिष्यभूत्या चकार । समवसृतिभनयां यक्षराड् यस्य सोऽज्याद् भवजलनिधिपातास्पार्श्वनायः सतां नः ||१०४॥
सार्दूलविक्रीडितम एवं श्रीजिननायकोच परया क्षान्त्या अगदयोतकं
प्राप्तः केवललोचनं सुविमल भुक्त्वा त्रिलोके सुखम् । से सहित था तथा लोकालोक के अग्रभाग को प्रकाशित करने वाला था ॥९E-En प्रनम्तमान, अनन्तदर्शन 'अनन्तवीर्य, क्षायिक सम्यक्रव, क्षायिकचारित्र, दान, लाभ, भोग
और उपभोग इन नौ केवललब्धियों को उन जिनेन्द्र ने स्वीकृत किया था। पे नौ केवललब्धियां चातिया कर्मों के भय से उत्पन्न होती है तथा लोक में परम असाधारण हैं ॥१००-१०१॥
मोह को जीतने वाले भगवान पार्श्वनाथ अब केवलज्ञान रूप विभूति के द्वारा देवीप्यमान हो रहे थे तब इन्द्रों ने भक्तिभार से उन्हें प्रणाम किया । देवों प्रावि ने प्राकाश में जय जयकार का शम्ब विस्तृत किया और देवदुन्दुभियों के शग्ध समूह से प्राफाश उस समय व्याप्त हो गया था ॥१०२॥ जो भ्रमरों की सघन गुजार से मामों गीत गा रही यो, ऐसी कल्पवृक्ष के फूलों को वृष्टि ऊपर से नीचे पड़ रही थी तथा अत्यन्त शीतल तरङ्गों का स्पर्श करने वाली वायु ने धीरे धीरे समस्त विशात्रों के अग्रभाग को व्याप्त कर लिया ॥१३॥
यक्षाधिपति कुबेर ने नाना प्रकार के मरिण समूहों तथा स्वर्गीय विभूति के द्वारा जिनकी समस्त भव से पूर्ण तथा धर्मरस्न की प्रथम खानस्वरूप प्रमूल्य समवसरण रचा था वे पार्श्वनाथ भगवान हम सत्पुरुषों को संसार सागर के पतन से रक्षा करें ॥१०॥
इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् इस जगत में परम क्षमा के द्वारा त्रिलोक सम्बन्धी अत्यन्त निर्मल सुख भोग कर जगत्प्रकाशक केवलज्ञान को प्राप्त हुए थे ऐसा जानकर हे १. गगनम् २. कल्पवृक्षपुष्पाणां ३. कुबेर: ४. पस्मान् ।