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* श्री पार्श्वनाथ चरित - मवेतीह जनाः कुरुध्वमनिशं सारां क्षमा मोक्षदा
सर्वत्रापि निहत्य कोपरिपु स्वमुक्तिसंसिद्धये ।।१०५।।
स्रग्धरा सर्वशो विश्वदर्शी त्रिभुवनशरणो धर्म तीर्थादिकर्ता
हन्ता कर्माक्षशन समवसृतियतो वन्दितः संस्तृतो यः । पूज्यः कल्याणकाले सुरखगपतिभिर्विश्वनाथर्मया च
सोऽयं श्रीपाश्वनायः प्रभवतु मम दुर्घातिकर्मक्षयाय ।। १०६।। इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते श्रीपार्वनाथचरित्रे केवलज्ञानोत्पत्तिवर्णनो नाम सप्तदशः सर्गः ।।१७॥ भव्यजन हो ! स्वर्ग और मुक्ति की प्राप्ति के लिये सभी जगह कोधरूपी दुष्ट शत्रु को नष्ट कर निरन्तर सार स्वरूप मोक्षवायक क्षमा को धारण करो॥१०॥
जो सर्वज्ञ थे, सर्ववर्शी थे, त्रिभुवन के रक्षक थे, धर्म तीर्थ प्रावि के कर्ता थे, कर्म तथा इन्द्रियरूपी शत्रुनों को नष्ट करने वाले थे, समवसरण से सहित थे, वन्दित थे, संस्तुत घे, तथा कल्याणकों के काल में देवेन्द्र विद्याधरेन्द्र, सबके नाप तथा मेरे द्वारा पूज्य थे, वे भी पार्श्वनाथ जिनेन्द्र हम सम के दुष्ट धातिया कर्मों के क्षय के लिये हों ॥१०६।।
इस प्रकार श्रीभट्टारक सकलकोति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित में केवल. मान की उत्पति का वर्णन करने वाला सत्रहवां सर्ग समाप्त हवा ॥१७॥