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अष्टादरा सर्ग
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अष्टादशः सर्गः दिव्यौदारिकदेहाय केवलज्ञान चक्षुषे । गुरूणां गुरवे मूर्ना श्रीपाश्र्वाय नमः सदा ।।१।। पथ केवलमाहात्म्याज्जिताधिध्वनिरभुता । घण्टा मुखरयामास वदन्तीय तदुत्सवम् ॥२॥ समन्तात्पुष्पवृष्टि प्रचक्र : कल्पमहीरुहाः । दिशो निर्मलतां प्रापुर्बभ्राजे 'व्यभ्रमम्बरम् ॥३॥ विष्ट राणि सुरेन्द्राणामन प्रचम्पिो भनु कटा नसाः शिशिरो मरुदाववो ।।४।। इत्यादिविविधश्चिहरवबुध्य तदुत्सवम् । सिंहासनात्समुत्थाय परोक्षभक्तिनिर्भरः ॥५॥ संयोजितावधिज्ञान प्रादिकल्पाधिपो द्रुतम् । ननाम तं जिनाधीसं केवलमानभूषितम् ।।६।। किमे सदिति पृच्छन्तोमिन्द्राणीमतिसंभ्रमात् । शक्रः प्रबोधयामास प्रभोः कैवल्यसंभवम् ।।७।। प्रयाणपटहेपूच्चैः प्रध्वनत्सु मुराधिपः । विभोः कैवल्यपूजाय निश्च काम वृतः सुरे. ॥६॥ ततो बलाहकाकारं विमानं 'कामुकाभिधम् । देवो "वलाहकश्चक्रे विस्तीर्ण सक्षपोजन : ।।६।।
अष्टादश सर्ग परमोवारिक शरीर से सहित, केवलज्ञानरूपी नेत्र से युक्त, गुरुषों के गुरु श्रीपार्वमाथ भगवान को सदा शिर से नमस्कार करता हूँ ॥१॥
प्रथानन्तर केवलज्ञान के माहात्म्य से समुद्र के शब्द को जीतने वाला घण्टा, कबलनाम महोत्सव की सूचना देता हुमा ही मानों शब्द करने लगा ।।२।। कल्पवृक्ष सब पोर पुष्पवर्षा करने लगे, दिशाए' निर्मलता को प्राप्त हो गई और मेघ रहित प्राकाश सुशोभित होने लगा ॥३॥ इन्द्रों के प्रासन जोर से कम्पित होने लगे, मुकुट नम्रीभूत हो गये और शीतल वायु बहने लगी ॥४|| इत्यादि विविध चिह्नों से केवलज्ञान का उत्सव जान कर परोक्ष भक्ति से परिपूर्ण, अवधिज्ञानी, सौधर्मेन्द्र ने शीघ्र ही सिंहासन से उठ कर केवलज्ञान से अलंकृत पार्श्व जिनेन्द्र को नमस्कार किया ॥५-६।। 'यह क्या है' इस प्रकार पूछती हुई इन्द्राणी को सौधर्मेन्द्र ने बड़े हर्ष से बतलाया कि पाप्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न हुमा है ॥७॥
तदनन्तर जब प्रस्थान काल में बजने वाले नगाड़े जोर जोर से शम्द कर रहे थे तब देवों से घिरा इन्द्र प्रभु के केवलज्ञान की पूजा के लिये निकला ॥८॥ तत्पश्चात् बलाहक नामक वेव ने मेघ के प्राकार, एक लाख योजन विस्तार वाला कामुक नामका १. मेघहितम् २. सौधर्मेन्द्रः ३. मेघाकारं ४. कामकाभिघ ख. ५० ५. बलाहकनाम देवः ।