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________________ १० ] * श्री पार्श्वनाथ चरित * प्रकदा नूपो मण्डलेश्वरस्योपरि द्रुतम् । वयवीर्याभिषस्यैव जगाम मन्त्रिणा समम् ।।८०॥ राजसिंहासने पश्चादुपविश्य निरशः । 'कमठोऽय व राज्य में' इत्यादिकवचोऽभरणत् ॥८॥ करोति पापपाकेन सोऽगम्पगमनादिकम् । लोकेऽतिदीर्घसंसारी पापात्मा पापकारकः ।।८।। रागान्धोऽप्येकदा दृष्ट्वा स्वभ्रातुभूषितां प्रियाम् । कामदाहाग्नितप्तोऽभूत्पीडितो मदनेषुभिः ।।८।। बने लतागृहे तं तद बना सोढुमक्षमम् । तत्सखः कलहंसाख्यो दृष्ट्वापृच्छत्प्रदुःखिनम् ।[८४१ हे मित्रेयमवस्था ते वत्तं तेऽत्राशुभा कुतः । स्वविकल्पं ततस्तेन सर्व प्रोक्तं व्यथाकरम् ।।८।। श्रुत्वा तवचनं निन्द्य प्राह तद्वोधकं वचः । सुहृत्त्वयेदमत्यन्तायोग्यनिन्द्य च चिन्तितम्॥८६॥ यतो मज्जन्ति ते पापाः परस्त्रीलम्पटा: शठा: । दुर्गत्यब्धी' नृपादाप्य यषा बन्धवधादिकम् ११८७।। कुर्वन्त्यालिङ्गनं येऽत्रान्यस्त्रियामाप्यधो गतौ । तनलोहाङ्गनाभिस्ते भजन्त्यालिङ्गन हठात् ।।८।। प्रिय होकर पुण्योदय से अपने पद की रक्षा करने लगा अथवा अपने पद का उपभोग करने लगा ॥७॥ तदनन्तर एक समय राजा, शीघ्रता से बचावीर्य मामफ मण्डलेश्वर के ऊपर मंत्री के साथ गया। भावार्थ-एक बार राजा अरविन्द ने बनवार्य भण्डलेश्वर के कपर अचानक चढाई कर दी। मंत्री मरुभूति भी राजा के साथ गया था॥०॥ राजा मोर मंत्री के चले जाने के पश्चात राज सिंहासन पर बैठकर कमठ निरंकुश-स्वच्छन्द हो गया और अब मेरा ही राज्य है' इत्यादि वचन कहने लगा ॥८॥ जिसका संसार बहुत भारी था, जो पाप को करने वाला था और जिसको आत्मा पाप से परिपूर्ण थी ऐसा कमठ पाप कर्म के उदय से लोक में अगम्यागमन प्रसेवनीय स्त्रियों का सेवन प्रावि कार्य करने लगा ॥२॥ रागान्ध हमठ, एक समय अपने भाई की स्त्री को अलंकृत देख कामरूपी अग्नि से संतप्त हो गया, कामवारणों से वह पीडित हो उठा ॥३॥ उस वेवना को सहन करने के लिये असमर्थ होकर यह बन के एक लतागृह में पड़ा हुआ था। उसे अत्यन्त दुःसीसकर उसके कलहंस नामक मित्र ने उससे पूछा ॥४॥हे मित्र ! यहां तुम्हारी यह अशुभ अवस्था किस कारण से हो रही है ? मित्र का प्रश्न सुन कमठ ने पीड़ा करने वाला अपना सब विकल्प उसके लिये कह विया ॥५॥ कमठ के निन्दनीय वचन सुनकर कलहंस मित्र ने उसे समझाने वाले वचन कहे। हे मित्र ! तुमने यह अत्यन्त प्रयोग्य और निन्दनीय विचार किया है। क्योंकि परस्त्रियों के लम्पट वे पापी मूर्ख, राजा से वष बन्धन प्रावि प्राप्त कर दुर्गति रूपी समुद्र में निमग्न होते हैं ।।८६-८७॥ जो मनुष्य इस लोक में अन्य स्त्रियों का प्रालि. मन करते हैं वै अधोगति-नरक में जाकर हठ पूर्वक कराये हुए संतप्त लोहाङ्गनाओं-तपाये १. दुगंतिसागरे २. मध्वा ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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