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________________ * प्रथम सर्ग * अथकदा विलोक्याशु मस्तके पलितं' कचम् । राजमन्त्री ससंवेग प्राप्येदं चिन्तयेच दि । ७१ ।। अहो मे पुण्ययोगेन के ऽभू धर्मात रो महान् । पलितच्छमना केशोऽयं चारित्रविधायकः ।। ७२ ।। दग्धं जराग्निना देहं कुटीरं यत् क्षयप्रदम् । इसन्ति कि बुधास्तत्र धर्मादिवस्तुदाहिनि ।। ७३ ।। सन्तो गृहाश्रमे तावतिष्ठन्त्येव जरा शुभा । यावन्नायादहीवान प्राक्तना खादितु वरान् ।। ७४ ।। दृष्टयेव भगिनी मृत्योरा विश्वभयंकरीम् 1 प्रात्मकार्य न कुर्वन्ति ये यमास्ये' पतन्ति ते ।। ७५॥ इत्यादिचिन्तया प्राप संवेगं परमं तदा । विश्वभोगभवाङ्ग वु मन्त्री मन्त्रिपदादिषु ।। ७६ ।। मरुभूति ततो राज्ञः समर्प्य वल्लभं सुतम् । निधाय म्वपदे हित्त्वा गेहावासं व्यथाकरम् ।। ७७ ।। द्विधासङ्ग च नम्रन्थ्य पदं लोकत्रयानिमम् । मुक्तिश्रीजनक मन्त्री जग्राह मोक्षसिद्धये ॥४॥ मरुभूतिर्नुपस्यातिप्रियो भूत्वा गुगनिजे: । राजलोकजनानां च भुनक्ति' स्वपदं शुभात्" ।।७।। राजा को भी बहुत प्रिय था ॥७०॥ तदनन्तर एक दिन राजमन्त्री विश्वभूति ने अपने मस्तक पर सफेद बाल देखा । उसे देख बह शीघ्र ही संवेग को प्राप्त होकर हृदय में यह विचार करने लगा ॥७१॥ अहो ! पुण्य योग से मेरे मस्तक पर सफेद बाल के छल से धर्म का बड़ा भारी अंकुर उत्पन्न हुआ है। यह केश चारित्र को उत्पन्न करने वाला है ॥७२।। जो शरीर रूपी कुटिया वृद्धावस्था रूपी अग्नि से दग्ध होकर मृत्यु को प्रदान करने वाली है, धर्मादि वस्तुओं को भस्म करने वाली उस शरीर रूपी कुटिया में क्या विवेकी जन निवास करते हैं ? अर्थात नहीं करते ।।७३॥ सत्पुरुष गृहाश्रम में तभी तक रहते हैं जब तक कि पूर्वभव की विरोधिनी सपिणी की तरह अशुभ वृद्धावस्था मनुष्यों को खाने के लिये नहीं पाती है। भावार्थ-वृद्धावस्था के पाते ही विवेकोजन गृहवास का परित्याग कर साधु दीक्षा धारण कर लेते हैं ॥७४।। यमराम की बहिन के समान सम जीवों का क्षय करने वाली वृद्धावस्था को देखकर जो मनुष्य प्रात्महित का कार्य नहीं करते हैं वे यमराज के मुख में पड़ते हैं ॥७५॥ इत्यादि विचार करने से मंत्री उस समय समस्त भोग, संसार, शरीर और मंत्री पद प्रादि के विषय में परम संवेग को प्राप्त हो गया ।।७६॥ ___ तदनन्तर प्रिय पुत्र मरुभूति को राजा के लिये सौंपकर तथा उसे अपने पद पर नियुक्त कर मंत्री ने पीड़ा उत्पन्न करने वाले गहवास को छोड़ दिया । उसने दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग कर तीनों लोकों के अग्रभाग को प्राप्त कराने वाले और मुक्ति रूपी लक्ष्मी के जनक निग्रन्थ पद को मोक्ष की सिद्धि के लिये ग्रहण कर लिया अर्थात् मुनिदीक्षा ले ली ।।७७-७८॥ मरुभूति अपने गुरणों के द्वारा राजा तथा राज परिजनों का प्रत्यन्त 1. वाक्य- शुक्ल २, संसारा ३. मस्तके ४. मृत्यूप्रदन ५. मृत्यूमुखे ६. रक्षति ७. पुण्यात् ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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