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________________ * प्रथम सर्ग * [ ११ सर्वस्वहरणं चात्मनाशं ह्यत्रेव भूपतेः । परस्त्रिया शठा गोत्रकलङ्क प्राप्नुवन्त्यहो । ६६ ।। पररामाभिलाषेण महातो रावणादयः । यदि नष्टा गताः श्वभ्रं नश्यत्यन्यो न किं भुवि ॥ १० ॥ सर्वदुःखाकरं घोरं महत्पापं प्रजायते । महता ध्यशसा सार्द्धं परस्त्रीकालिरगा हृदा ।। ६१ ।। तस्याः पितृसमो ज्येष्ठो रे निर्लज्ज न लज्जसे । वाञ्छन् भ्रातृप्रियां तस्मात्त्यजेवं त्वं दुराग्रहम् ।। ६२ ।। अन्धस्य नर्तनं यद्वदोषधं च गतायुषः । हितं च जायते व्यर्थ रागिरणो धर्मभाषणम् ।।१३।। तद्वत्तद्वचनं सारं पापघ्नं धर्मसूचकम् । श्रनाचारापहं जातं व्यर्थं तत्पापतोऽखिलम् ।। ९४ ।। ततस्तद्वाक्यमाकर्ण्य जगी कामातुरो हि स । यदि तत्सेवनं न स्यात्तहि मे मरणम् । ६५ ।। सदाग्रह परिज्ञाय प्राप्य तां वक्ति सोऽप्यधीः । हे सुन्दरि वनेऽनिष्टं वर्तते कमठस्य हि ॥ ६६ ॥ तो याहि वनं शीघ्रं तच्छ्रुश्रूषादिहेतवे। तद्वचयां जानती सागात्कमठं प्रति तदुगिरा ।। ६७ ।। दृष्ट्वा सोऽभ्यन्तरीकृत्य तामनेकप्रजल्पनेः । सरागचेष्टितस्तत्र सिषेवे निन्द्यकर्मकृत् ॥ ६८ ॥ हुए लोहे की पुतलियों के श्रालिङ्गन को प्राप्त होते हैं ।। ६८ ।। पर स्त्री के कारण वर्तजन इसी लोक में राजा से सर्वस्वहरण, आत्मनाश-प्रारणदण्ड और वंश के अपवाद को प्राप्त होते हैं; यह प्राश्चर्य की बात है ॥ ८६ ॥ जब रावरण प्रावि बडे बडे पुरुष भी परस्त्री की प्रभिलाषा मात्र से नष्ट होकर नरक गये तब पृथिवी पर अन्य साधारण मनुष्य क्या नष्ट नहीं होगा ? अवश्य होगा ॥६०॥ हृदय से परस्त्री की इच्छा रखने वाले के बड़े भारी प्रयश के साथ समस्त दुःखों की खान स्वरूप बहुत भारी भयंकर पाप होता है ॥ ६१ ॥ श्ररे निर्लज्ज ! तू उसका पिता तुल्य जेठ है भाई की स्त्री को चाहता हुआ तू लज्जित नहीं हो रहा है ? इसलिये तू इस दुराग्रह को छोड़ ॥ ६२ ॥ · जिस प्रकार अन्य पुरुष के सामने नृत्य, क्षीण श्रायु वाले पुरुष को प्रदत प्रोषध और रागी मनुष्य को दिया हुआ हितकारी धर्म का उपवेश व्यर्थ होता है उसी प्रकार पाप को नष्ट करने वाले, धर्म के सूचक, और अनाचार को नष्ट करने वाले मित्र के सारपूर्ण समस्त बचन कमठ के पाप से व्यर्थ हो गये ।। ६३-६४ ।। तबमन्तर उसके वचन सुनकर काम से पीडित कमठ ने कहा कि यदि उसका सेवन नहीं होता है तो मेरा मरण निश्चित आयमा ॥६५॥ उसका आग्रह जान दुर्बुद्धि कलहंस ने मरुभूति की स्त्री के पास आ कर कहा कि हे सुम्बरि ! वन में कमठ का अनिष्ट हो रहा है-वह बहुत अधिक प्रस्वस्थ है, अतः उसकी सेवा आदि के लिये शीघ्र ही बम को जाम्रो । उसकी वाणी से कमठ की पोडा को जानती हुई मरुभूति की स्त्री कमठ की घोर गई ।।६६-६७।। निन्द्य काम को करने वाले १. बा २ महता मयशसा इतिच्छेदः १. निर्बुद्धिः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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