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________________ २८ ] • भोपामनाथ चरित - तृतीय सर्गः भीपाश्यं त्रिजगन्नायं विष्वानिष्टक्षयंकरम् । सतां स्वपार्वदातारं स्तुवे तत्पापर्वहेतवे ।।१।। प्रषेकदा स्वधर्माय समाधिगुप्तयोगिनम् । पग्निवेगकुमारोऽगाद् वन्दितु गुप्तिरक्षकम् ।।२।। विःपरीत्य यतीशं तं गुप्तित्रितयमण्डितम् । नत्वा मुर्भा च संपूज्य सोऽस्थात्तत्सन्मुखो मुदो ।।३।। धर्मवृद्धभिधाशीदिन भव्य नृपात्मजम् । अभिनन्द्य मुनिघमं प्रोक्तु निजोद्यम व्यधात् ।।४।। महो कुमार सद्धर्म मुक्तिश्रीवशकारकम् । यतीन्द्र सेवितं सारं निःपाप कुरु सर्वथा ।।५।। येन धर्मेण मुक्तिश्रीदत्त स्वालिङ्गन सताम् । प्रत्यासक्ता स्वयं धत्य का कथा नाकयोषिताम् ।।६।। धार्मिकाणां सुधर्मेण चरणान्जे निरन्तरम् । किंकरा इव देवेन्द्रा नमन्त्याजाविधायिनः ।।७।। जिनेन्द्रपदजां लक्ष्मी सर्वलोकातिशायिनीम् । त्रिजगद्वन्दिता धर्माल्लभन्ते मुनयोऽचिरात् ।।८।। तृतीय सर्ग जो तीनों जगत् के नाथ हैं, समस्त अनिष्टों का क्षय करने वाले हैं और सत्पुरुषों को अपनी समीपता प्रदान करते हैं उन पार्श्वनाथ भगवान को मैं उनकी समीपता प्राप्त करने के हेतु स्तुति करता हैं ॥१॥ तदनन्तर एक समय अग्निवेग कुमार अपने आपमें धार्मिक भाव जागृत करने के लिये गुप्तियों के रक्षक समाधिगुप्त नामक मुनिराज को वन्दना के अर्थ गया ।।२।। तोन गुप्तियों से सुशोभित उन मुनिराज की तीन प्रदक्षिणा देकर उसने उन्हें शिर से नमस्कार किया, उनकी पूजा की, तदनन्तर वह बडे हर्ष से उनके सन्मुख बैठ गया ॥३॥ मुनिराज ने धर्मवृद्धि नामक प्राशीर्वाद के द्वारा भव्य राजपुत्र का अभिनन्दन कर धर्म कहने के लिये अपना पुरुषार्थ किया ॥४॥ उन्होंने कहा कि महो राजकुमार ! मुक्ति रूपी लक्ष्मी को वश करने वाले, बडे बडे मुनियों के द्वारा सेवित, श्रेष्ठ और पाप रहित समोचीन धर्म का तुम सब प्रकार से पालन करो ॥५॥ जिसधर्म के द्वारा अत्यन्त प्रासक्त हुई मुक्तिरूपी लक्ष्मी स्वयं प्राकर सत्पुरुषों के लिये अपना आलिङ्गन देती है उस धर्म के द्वारा देवाङ्गनाओं के प्रालिङ्गान की कथा ही क्या है ? ॥६।। समीचीन धर्म के द्वारा वेवेन्द्र, किङ्करों के समान प्राज्ञाकारी होकर धर्मात्माओं के चरण कमलों को निरन्तर नमस्कार करते हैं ।।७।। जो सब लोगों को प्रतिक्रान्त करने वाली है अथवा जो समस्त लोक में श्रेष्ठ है और तीनों जगत् के द्वारा बन्दनीय है ऐसी तीर्थकर पद को लक्ष्मी को मुनि धर्म के प्रभाव से शीघ्र १ देखीनाम् ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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