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________________ द्वितीय सगं [ २७ शार्दूलविक्रिस्तिम् एमदेिष किलाप्त एव विविधं सौख्यं वरं देवर्ज, धमदिव ततोऽमले नृपकुले कौमारजं चोत्तमम् । जावेतीह बुधा वृष व्यघहर' यत्नात्कुरुध्वं सदा, स्वर्मोक्षकवशीकरं हितकरं सौख्याकरं मुक्तये ।।१११। पाश्वः पाश्र्वधरः सतां व्यधहर: पाश्चं श्रिता धार्मिकाः, पाव किलाप्यते शिवसुखं पार्धाय सिद्धधं नमः । पावद्विधनचमोऽद्ध तं विघटते पार्श्वस्य मुक्तिः प्रिया, पाशा पाश्र्वजिन स्थितोऽहमनिशं मे वृत्तविघ्नं हर। पुति भट्टारक श्रीसकलकातिविरचिते श्रीपाश्वनाथचरित्रे गजेन्द्रशशिप्रभदेवाग्निवेग भवत्रयबरानो नाम द्वितीयः सर्गः । नाना प्रकार के उत्तम सुख को प्राप्त हुआ, तदनन्तर वर्तमान भव में धर्म से ही निर्मल राजकुल में कुमारावस्था में होने वाले उत्तम सुख को प्राप्त हुआ है, यह जानकर हे बुधअन हो ! मुक्ति के लिये विविध प्रकार के पापों को हरने वाले, स्वर्ग और मोक्ष को वश करने वाले, हितकारी और सुख की खान स्वरूप धर्म को सदा यत्नपूर्वक धारण करो ।।१११॥ विविध पापों को हरने वाले पार्श्वनाथ भगवान सत्पुरुषों को अपने पास में रखते थे, धार्मिक जीव पार्श्वनाथ की शरण में पहुंचते थे। पार्श्वनाथ के द्वारा ही मोक्ष का सुख प्राप्त होता है, सिद्धि की प्राप्ति के लिये पार्श्व जिनेन्द्र को मेरा नमस्कार हो, पार्श्वनाथ से विघ्नों का समूह अद्ध तरूप से विदित हो गया था, मुक्तिरूपी स्त्री पार्श्वनाथ भगवान को अतिशय प्रिय थी, हे पावं जिनेन्द्र ! मैं निरन्तर पाप में ही स्थित है, अतः मेरे चारित्र सम्बन्धी विघ्न को शीघ्र ही हरण करो ॥१११-११२।। इस प्रकार श्री भट्टारक सकलकोति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित्र में गजराज, शशिप्नभ देव और अग्निवेग के तीनभवों का वर्णन करने वाला दूसरा सर्ग समाप्त हुना। MARA . विविध पापविम्बर १. चारित्रविरामक
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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