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________________ ४] * श्री पार्श्वनाथ रित * इत्यादिधर्मसद्भावं श्रुत्वा भूपोऽवदत् सुधीः । भगवकिञ्चिदिच्छामि प्रष्टु मे संशयास्पदम् ।।५।। प्रचेतने कृता पूजा निग्रहानुपहच्युते । जिनबिम्बे जनाराच्ये शिल्पिनिर्मापित्ते शुभे ॥५२।। भक्तिर्वा महता पुण्यं कथं फलति वा दिवम् । तत्सर्व कृपया नाथ ! संशयं मे निराकुरु ।।५३।। यथा सूर्याहते जातु तमो नंश्यं' न नश्यनि । तथा मे संशयध्यान्तं भवद्वाक्यांशुभिविना ।। ५४।। श्रुत्वा तद्वचनं वाममो समीइस्तदनुग्रहम् । स प्राह शृणु हे राजन् वक्ष्ये बिम्बादिकारणम्।।५।। पुण्यकारणसंभूतं चैत्यं चैत्यालयादि च । जिनेन्द्राणां भवत्येव भव्यानां नात्र संशयः ।। ५६॥ जिनेन्द्राणां सुबिम्बादि पश्यतां धर्मकाक्षिणाम् । परिणाम शुभं सारं तस्ारण जायतेतराम् ।।५।। श्रीजिनस्मररगं साक्षाज्जिनध्यानमनारतम् । तत्साहश्य महाबिम्बदर्शनाच्चाघरोधनम् ॥५८।। शस्त्राभरणवस्त्राणि विकाराकृतयः क्वचित् । सगादयो महादोषाः करताद्य गुण वजाः२ ११५६।। जिनेन्द्रप्रतिमानाञ्च यथा सन्ति म भूतले । तथा श्रोजिनदेवानां धर्मती प्रवतिनाम् ॥६० ।। गृहस्थ शीघ्र ही इस जगत् में सोलह स्वर्ग प्राप्त करते हैं और क्रम से सुख के सागर स्वरूप निर्धारण को प्राप्त होते हैं ॥५०॥ इत्यादि धर्म का सद्भाव सुमकर बुद्धिमवि राजा ने कहा कि हे भगवन् ! मैं कुछ संशयास्पद बात को पूछना चाहता है ॥५१॥ निग्रह और अनुग्रह-अपकार और उपकार को सामर्थ्य से रहित, मनुष्यों के द्वारा प्राराधनीय तथा शिल्पकार के द्वारा बनाई हुई अचेतन शुभ जिन प्रतिमा के विषय में की हुई पूजा एवं भक्ति महापुरुषों को पुण्य का कारण कैसे होती है और स्वर्गरूप फल को कैसे फलती है ? हे नाथ ! दया कर मेरे इस सर्व संशय को दूर कीजिये ॥५२-५३।। जिस प्रकार सूर्य के बिना रात्रि का अन्धकार नष्ट नहीं होता है उसी प्रकार प्रापके वचनरूप किरणों के बिना मेरा संशयरूपी अन्धकार नष्ट नहीं हो सकता है ।।५४।। __ राजा के वचन सुनकर प्रशस्त वचन बोलने वाले मुनिराज उसका उपकार करने की इच्छा करते हुए बोले-हे राजन् ! सुनो मैं बिम्ब प्रादि का कारण कहता हूँ ॥५५॥ जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा तथा मन्दिर प्रादि भव्य जीवों के पुण्य का कारण नियम से हैं इसमें संशय नहीं है ॥५६॥ जिनेन्द्र भगवान् के उत्तम बिम्ब प्रादि का दर्शन करने वाले धर्माभिलाषी भव्य जीवों के परिणाम तत्काल शुभ श्रेष्ठ होते ही हैं ।।५७॥ जिनेन्द्र भगबान का साहश्य रखने वालो महा प्रतिमाओं के दर्शन से साक्षात् जिनेन्द्र भगवान का स्मरण होता है, निरन्तर उनका साक्षात घ्यान होता है और उसके फल स्वरूप पापों का निरोध होता है ॥५६॥ शस्त्र, प्राभरण, वस्त्रादि, धिकार पूर्ण प्राकार, रागादिक महान १. रात्रिभवं २. क्रूरतादि-पगुणवजाः इतिच्छेदः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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