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________________ - ----- -- २३४ ] • श्री पार्श्वनाथ चरित. स्वर्णषोडशसोपाना सन्मध्ये पीठिका परा । न्यस्तपुष्पोपहारार्धा तन्मध्येऽपि त्रिमेखलम् ।। ५४॥ मस्ति दिव्यं परं पीठं ते तन्मूनि प्रतिष्ठिताः । मनस्तम्भा महामाना दुहं शां मानखण्डनात् ।।५।। स्तम्भपयन्तभूभागमलंच क्र : सहोत्पलाः । स्वच्छनीरभृतो वाप्यो नन्दोत्तरादिसंज्ञकाः ॥५६॥ दिशं पति पतम्रो पण पाविधि: : पाहादालनाकुण्डस्तटभूमिविमण्डिताः ।।५७।। पक्षिदिरेफझधारयन्त्य इव सद्गुणः । जिनेन्द्रं वा महावाप्यो बभुनेत्रप्रियकराः ॥५८।। स्वल्पान्तरं ततोऽतीत्य महीं तां कमलैश्चिता' । परिवत्र तत्र ततो वीषीं च जलखातिका ।। ५६।। वातोभूसतरङ्गोषैः पक्षिकोलाहलैश्च सा । रेजेऽगाधा प्रनुत्यन्तीव तोषात्तनमहोत्सवे ।।६।। तदभ्यन्तरभूभागं परितो हि लतावनम् । अलंच के धनच्छायं वल्लीगुल्मद्रुमभृतम् ॥६॥ पुष्पवल्लीसमासक्तगुञ्जभ्रमरसुन्दरम् । सर्वत्त कुसुमोपेतं पक्षिकोलाहलाकुलम् ॥६२।। तत्र क्रीडाइयो भान्ति सशय्याश्च लतालया: । घृता ये स्युः पुरस्त्रीणां मिशिर। मरुतो वराः।।६३।। मानस्तम्भों की रचना इस प्रकार थी। सर्व प्रथम चार गोपुरों से युक्त, तीन प्राकारों से वेष्टिस और त्रिलोकीनाथ के स्नपमजल से पवित्र जगतियां थीं। उन जगत्तियों पर चढ़ने के लिये स्वर्ण की सोलह सीढ़ियां लग रही थीं। उन जगतियों के मध्य में तीन मेखला वाला सुन्दर परम पीठ था। उस पीठ पर वे मानस्तम्भ प्रतिष्ठित थे। मानस्तम्भ बहुत ऊंचे थे तथा मिथ्याष्टियों का मान खण्डन करने के कारण मानस्तम्भ कहलाते थे ॥५३-५५॥ ___नील कमलों से सहित तथा स्वच्छ जल से भरी हुई नन्दोत्तरा मावि वापिकाएं जन मानस्तम्भों के समीपवर्ती भूमिभाग को सुशोभित कर रही थीं ॥५६॥ वे वापिकाएं एक दिशा में चार चार थीं, मरिणमय सीढ़ियों से विभूषित थीं, पर धोने के कुण्डों से युक्त थी तथा तट भूमियों से अलंकृत थीं ॥५७।। नेत्रों को प्रिय लगने वाली ये महावापिकाएं पक्षियों और भ्रमरों की झांकारों से ऐसी जान पड़ती थीं मानो प्रशस्त गुणों के द्वारा भगवान का गान ही कर रही हों ॥५८।। उससे थोड़ी दूर जाकर कमलों से व्याप्त परिखा उस भूमि तथा वीथी को घेरे हुये है ॥५६।। यह परिखा बहुत गहरी पी और वायु से उठती हुई तरङ्गों के समूहों तथा पक्षियों के कोलाहलों से ऐसी जान पड़ती थी मानों भगवान के केवलज्ञान महोत्सव में संतोष से नृत्य ही कर रही हो ॥६०॥ उस परिखा के भीतरी भूभाग को चारों ओर से यह लताबन अलंकृत कर रहा था जो सघन छाया से सहित था, लता, झाड़ी और वृक्षों से भरा हुआ था, पुष्पित लतामों पर बैठ कर गुजार करने वाले भ्रमरों से सुन्दर था, सब ऋतुओं के पुष्पों से सहित था और पक्षियों के कोलाहल से व्याप्त पा॥६१-६२॥ उस लतावन में क्रीडागिरि तथा शय्यानों से सहित वे 1.चितां ग. २. श्लोकोऽयं ग० प्रती एवास्ति ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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