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________________ १ * अष्टादश सर्गे [ २३५ | विश्रामायामरादीनां भवन्ति तेजसाकुलाः ।। ६४ । चन्द्रकान्सशिलास्तत्र लताभवनमध्यगाः अतोऽध्वानं ततोऽतीत्य कियन्तं तां घरां शुभाम् । प्राकारः प्रथमो व तुङ्गी रम्यो हिरण्मयः ।। ६५ ॥ यस्योपरिणामावली | ताराततिरियं कि स्विदिस्याशङ्कास्पदं सताम् ॥ ६६॥ क्वचिप्तवघनच्छविः । क्वचिच्छावलसुच्छाय इन्द्रगोपनिभः क्वचित् । ६७१ रचितेन्द्रशरासनः । व्यभात् स नितरां शालो विद्युदापिञ्चरः क्वचित् ६८ 1 क्वचिद्ध सशुकै हिरो : * क्वचिच्च नुयुग्मकैः ।। ६६ ।। क्वचिच्च कल्पवल्लीभिबहिरन्तो विचित्रितः । हसन्निव बभौ सोऽतिसुन्दरो मणिरश्मिभिः ॥७०॥ महान्ति गोपुराण्यस्य त्रिभूमानि बभुस्तराम् । राजतानि सुरूप्याद्रेः शृङ्गाणीव स्पृशन्ति सम् ।। ७१ ।। पद्मरागमयैस्तुङ्गः शिख रेग्यमलङ्घभिः । दिशः पल्लवयन्तीव तानि रत्नांशुसंकुलैः ॥७२॥ क्वचिद्विपरिव्याघ्ररूपमिथुनवृत्तिभिः क्वचिद्विद्र मसंघातः क्वचिद्विचित्ररत्नांशु निकुञ्ज सुशोभित होते हैं जहां बेवाङ्गनाथों के द्वारा सेवनीय ठण्डी ठण्डी वायु बहती रहती है ।। ६३||| वहां देषों आदि के विश्राम के लिये लताभवनों के मध्य में चन्द्रकान्स मरिण की वेदीप्यमान शिलाए हैं ||६४|| इसके भागे कितने ही मार्ग को उल्लंघ कर उस शुभ भूमि को सुवर्णमय रमणीय ऊंचा वह प्रथम कोट घेरे हुए था ।। ६५|| जिसके ऊपर लगी हुई मोतियों की देदीप्यमान माला सत्पुरुषों को ऐसी शङ्का उत्पन्न करती रहती है कि क्या यह ताराम्रों की पंक्ति है ? ।। ६६ ।। वह कोट कहीं मूं गानों के समूह से युक्त था, कहीं नवीन मेघ के समान श्यामल कान्ति से सहित था, कहीं हरी हरी घास के समान कान्ति से सुशोभित था, कहीं वीर बहूटी के समान लाल रंग का था, कहीं चित्र विचित्र रत्नों की किरणों से इन्द्रधनुष की रचना कर रहा था और कहीं बिजली के समान पीतवर्ण से युक्त होता हुआ प्रत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।। ६७-६८ ।। वह कोट कहीं युगलरूप से रहने वाले हाथी घोड़े और व्याघ्र की प्राकृतियों से, कहीं हंस तोता और मयूरों से तथा कहीं स्त्री पुरुषों के युगलों से सुशोभित हो रहा था ।। ६६ ॥ कहीं भीतर बाहर कल्पलतानों से चित्रविचित्र हो रहा था और कहीं रहनों की किरणों से प्रत्यन्त सुन्दर दिखने वाला वह कोट ऐसा जान पड़ता था मानों हँस ही रहा हो ॥७०॥ इस सुवर्णमय कोट में तीन तीन खण्ड के चांदी के बड़े बड़े गोपुर अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानों विजयार्ध के शिक्षर ही आकाश का स्पर्श कर रहे हों ।।७१|| वे गोपुर, प्रकाश को लांघने वाले रत्नों की किरणों से युक्त, पद्मराग मणिमय ऊंचे शिखरों से ऐसे जान पड़ते थे मानों दिशाओं को पल्लवित - लहलहाते नवीन १ विरामामामरादीनां २ मयूरैः ३ खण्डत्रितययुक्तानि ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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