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________________ २३६ ] श्री पार्श्वनाथ चरित * जगद्गुरोगुणानत्र गायन्ति देवगायना: । केचिच्छृण्वन्ति केचिच्च नृत्यन्ति परमोत्सवात् ।७३। भृङ्गारकलशान्दाद्या मङ्गलद्रव्यसंपदा । अष्टोत्तरशतं तेषु प्रत्येक गोपुरेष्वभाव ।।७४।। मारिणक्यरधिमजालातिपरिपिञ्जरिताम्बरा: ।प्रत्येक तोरणास्तेषु शतसंख्या बभासिरे ।।७।। निसर्गभास्वरे काये विभोः स्वानवकाशताम् । मत्लेवाभरगणान्यस्थु रुद्धावान्यनुतोरणम् ।।७६।। निधयो नव पद्माद्या वैराग्यादवधीरिताः । स्वामिना स्वयंवैवात्र तद्वारोपान्त माश्रिताः ।७७॥ तेषामन्तर्महावोथेरुभयोः पार्श्वयोरभूत् । नाटयशालाद्रयं दिक्षु प्रत्येक चतसृष्वपि ।।७।। तप्तहेममयस्तम्भो शुद्धस्फाटिकभित्तिको । तौ रत्नशिखरस्तुङ्ग स्तिसृभिभूमिमिः परै '१७६।। गीतवाद्यादिशब्दोध रेजतुर्नाटयमण्डपी । गजेन्ताविव गीर्वाणाप्सरोभि: परिपूरितो ।।८।। नाटयमण्डपरङ्गेषु मृदङ्गादिसुवादनः । नृत्यन्त्यमरनर्तक्यो जिनभक्तिभराङ्किता: ।।१।। किन्नयः किन्नरैः सार्द्ध वीणावादेन सत्स्वनम् । मान्ति जिनमलस्य जयं कर्मारिघातजम् ।।२।। लाल पत्तों से युक्त ही कर रहे हों ॥७२॥ इग गोपुर में देशों के भक्ष्य जगद्गुरु-भगवान के गुण गाते हैं, कोई सुनते हैं और कोई बहुत भारी हर्ष से नृत्य करते हैं ।।७३। उन गोपुरों में प्रत्येक गोपुर के समीप मृङ्गार कलश और दर्पण प्रादि मङ्गल द्रव्य एक सौ पाठ एक सौ पाठ की संख्या में सुशोभित थे ॥७४॥ उन गोपुरों में प्रत्येक के प्रागे मरिणयों के किरणसमूह से प्राकाश को अत्यधिक पीला करने वाले सौ सौ सोरण सुशोभित हो रहे थे ॥७५॥ प्रत्येक तोरण के समीप भाभूषण विद्यमान थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानों स्वभाव से देदीप्यमान भगवान के शरीर में अपने लिये स्थान न जान कर प्राकाश को घेरे हुए हो विद्यमान थे ॥७६॥ वैराग्य के कारण भगवान के द्वारा तिरस्कृत पद्म प्रावि नौ निधियां अपनी ईर्ष्या से ही मानों उन गोपुर द्वारों के समीप प्रा डटी थीं ॥७७।। उन गोपुरों के बीच में जो महा वीथी-लम्बी चौड़ी सड़क थी उसके दोनों ओर चारों दिशाओं में दो दो नाट्यशालाएं थीं ॥७८॥ वे नाट्यशालाए तपाये हुए सुवर्ण से निर्मित सम्भों से सहित थी, उनकी दीवालें शुद्ध स्फटिक की थीं । ऊचे ऊचे रत्नमय शिखरों और तीन तीन खण्डों से वे बड़ी भली प्रतीत होती थीं ।।७६।। देव देवाङ्गनाओं से भरी हुई थे नाटयशालाएंगीत तथा बाजों आदि के शब्द समूहों से ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानों गर्जना ही कर रही हैं ।।८। उन नाट्यशालाओं को रङ्गभूमियों में जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से भरी हुई देव नर्तकियो, मृवङ्ग आदि उत्तम बाजों की ताल पाकर नृत्य कर रहीं थीं ।।१॥ किन्नरियां किन्नरों के साथ मिल कर वीणा की मधुर ध्वनि से कर्मरूपी शत्रु के घात से उत्पन्न जिनराजरूपी मल्ल के विजयगीत गा रही थीं। शा। १. परः ख
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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