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________________ MaRKAmar.Amar * अष्टावश सर्ग . सतो धूपघटो द्वौ द्वौ घीथीनामुभयोदिशोः । सुगन्धीकृतदिग्भागौ धूपधूमर्मरुदर्शः ॥३॥ सत्र चोप्यन्तरेष्वासाचतस्रो वनवीथयः । सर्वतु फलपुष्पादिपूर्णतुङ्ग मान्विताः ॥४॥ अशोकसप्तपर्णाख्यचम्पकाम्रमहीरुहाम् । रेजुस्तानि वनान्युच्दैनन्दनानोव सन्ततम् ।।८।। बनानां मध्यभागेषु क्वचिद्वाप्योऽम्बुसंभृताः । चतुरुकोणास्त्रिकोणाश्च पुष्करिण्यः क्वचित्पराः८६ बचिवाणि रम्यारिण क्वचिच्च कृतकाद्रयः । प्रेक्षागारा: क्वचिद्दिव्याः क्वचिदा कोडमण्डपाः ।०७। चित्रशाला: क्वचिद्रम्या देवानां मिथुन ताः । एकशालाद्विशालाद्याः क्वचित्प्रासादपंक्तयः । ८८।। मचिच्च झाड्वलाभूमिरिन्द्रगोपः क्वचित्तताः । सरोस्यमलवारीरिण क्वचिन्नद्यः ससंकताः ।।६।। अशोकवनमध्ये स्यादशोकास्यो दुमो महान् । हैमं त्रिमेखलं पीठं रम्यं तुङ्गमधिष्ठितः ।।६।। प्रषोभागे जिनेन्द्रस्य प्रतिबिम्बविभूषितः । चतुर्दिस सुररर्यश्चत्यवृक्षाभिषः परः ।।६।। सप्सपर्णवनेऽप्यासीत्सप्तपर्णद्र मो महान् । चम्पकाम्रतरू एवं ज्ञेयो शेषवनद्धये ।।१२।। तदनन्तर गलियों को दोनों दिशाओं में वायु के यश उड़ते हुए धूप के धुमां से विशात्रों को सुगन्धित करने वाले दो दो धूप घट थे ॥३॥ उन गलियों के बीच में चार वन बोथियां और थीं जो समस्त ऋतुओं के फल पुष्प आदि से परिपूर्ण ऊचे ऊंचे वृक्षों से सहित थीं ॥४॥ अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और पाम्रवृक्षों के वे ऊंचे ऊंचे धन निरन्तर नन्दन वन के समान सुशोभित हो रहे थे ॥५॥ उन वनों के मध्यभाग में कहीं जल से भरी हुई चतुकोण और त्रिकोण वापिकाएं थों तथा कहीं उत्कृष्ट छोटे छोटे तालाब थे ॥६।। कहीं रमणीय महल थे, कहीं कृत्रिम क्रीडा गिरि थे, कहीं सुन्दर प्रेक्षागृह-देखने के स्थान और कहीं सुन्दर बन निकुञ्ज थे। कहीं देव देवियों से भरी हुई सुन्दर चित्रशालाएं थीं, कहीं एक खण्ड, दो खण्ड आदि की भवन पंक्तियां थीं ।।८७-८८॥ कहीं इन्द्रगोप नामक लाल लाल कीड़ों से व्याप्त हरी घास की भूमि थी, कहीं स्वच्छ जल से भरे हुए तालाब थे और कहीं रेसीले तटों से युक्त नदियां थीं । अशोक वन के मध्य में अशोक नामका एक बड़ा वृक्ष था जो तीन मेखला. वाले रमणीय तथा अंचे स्वर्णमय पीठ पर स्थित था ॥१०॥ यह बड़ा वृक्ष चैत्यवृक्ष कहलाता था, चारों विशामों में नीचे स्थित जिनप्रतिमानों से विभूषित था तथा देवों के द्वारा पूज्य था ॥१॥ सप्तपर्ण वन में भी सप्तपर्ण नामका महान वृक्ष था। इसी प्रकार चम्पकवन और पाम्रवन की सम्पदा बढ़ाने के लिये उनके मध्य में चम्पक वृक्ष और पाम्रवृक्ष जानना चाहिये ॥२॥
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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