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________________ २३८ ] * भो परश्वनाथ चरित मालवस्त्रमयूराजहंसवीनमृगेशिनाम्' ॥ वृषभे भेन्द्रच कारणां ध्वजाः स्युदेशषेत्यपि ॥६३॥ शतमष्टोत्तरं ज्ञेयाः प्रत्येकं केतवोऽमलाः । एकैकस्यां दिशि प्रो वास्तरङ्गा इव वारिषेः ॥ २४॥ समीरान्दोलितस्तेषां ध्वजानामंशुकोस्कर: | व्याजुहूषुरिवाभाति जिनाच्चयै खगामरानुम स्रग्ध्वजेषु स्रजो रम्याः सौमनस्योऽवलम्बिरे । वस्त्रतुषु सूक्ष्मांशुकानि शोभाकराणि च ॥ ६६॥ मयूरादिव जेष्वेवं मयूरादिसुमूर्तयः । सर्वेषु लम्बिता ज्ञेया दिव्यरूपधराः पराः ॥१७॥ इत्यमी केतवो दिव्या मोहारतिजयोज्जिताः । बभुस्त्रिभुवनं श्वयंसे की कर्तुं मिवरेखताः DESI एकस्य दास सर्व तु पिण्डाः केतवः पराः । अशीतियुतमेकं सहस्र युजिनेशिनः ॥ २६ ॥ एकीकृताः समस्तास्ते चतसृष्वपि दिक्षु हि । विंशत्यामा त्रिचत्वारिंशच्छतानि भवन्त्यपि । १०० । ततोऽनन्तरमेवान्तर्भागेऽयाद्वितीयो महान् । श्रीमानर्जुननिर्माण: शालस्तुङ्गो मनोहरः।। १०१ । । पूर्वगोपुराण्यस्य तोरणाभरणानि च । प्रागुक्ता वनाः सर्वा मा फाले विदुर्बुधाः । १०२ । गरुड़, सिंह, वृषभ, हाथी और चक्र के चिह्न से दश प्रकार की निर्मल ध्वजाए एक एक विशा एक प्राठ एक सौ आठ थीं तथा समुद्र की ऊंची उठी हुई लहरों के समान सुशोभित हो रही थीं ।। ६३-६४|| वायु से हिलता हुआ उन ध्वजाओं का वस्त्र समूह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों जिनेन्द्र भगवान् की पूजा के लिये देव और विद्याधरों को बुलाना ही चाहता हो ||२५|| माला से चिह्नित ध्वजानों के ऊपर फूलों की मनोहर मालाएं लटक रही थीं। वस्त्र के चिह्न से चिह्नित पताकाओं पर शोभा की खानस्वरूप सूक्ष्म वस्त्र लटक रहे थे । इसी प्रकार मयूर प्रादि के चिह्नों से सुशोभित समस्त व्वजाओं पर मयूर आदि की सुन्दर मूर्तियां अवलम्बित थीं । ये सब मूर्तियां सुन्दर रूप को धारण करने वाली अतिशय श्रेष्ठ थीं ।। ६६-६७।। मोहरूपी शत्रु को जीत लेने के उपलक्ष्य में फहराई हुई ये fror पताकाएं ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानों तीनलोक का ऐश्वर्य एकत्रित करने के लिये ही उच्चत हों ।। ६८ ।। एक दिशा में संमिलितरूप से जिनेन्द्र भगवान् की समस्त उत्कृष्ट ध्वजाए एक हजार अस्सी थीं ॥६६॥ चारों दिशाओं में एकत्रित समस्त ध्वजाए तेतालीस सौ बीस थीं ।। १००॥ माला, वस्त्र, मयूर, कमल, हंस, चिह्नित दश प्रकार की ध्वजाएं थीं। ये में इसके श्रागे मध्यभाग में चांदी से निर्मित शोभा संपन्न, मनोहर ऊंचा दूसरा महान कोट था । १०१ ।। इस द्वितीय कोट के गोपुर तोरण, प्राभूषरण तथा पहले कही हुई समस्त aiना प्रथम कोट के समान जानना चाहिये ।। १०२ ।। इस कोट की महावीथी चौड़ी ० ० ० ४. रक्त १. वीनां पक्षिणाम् इन: स्वामी बीनः गरुड इत्यर्थ: २. श्रह्नमिच्छुः ३. प्रभवन्त्यपि निर्माणः श्रीमानच्चन निर्माणः ख० प० ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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