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________________ * चतुर्थ सर्ग * [ ४६ गुरून्सङ्गविनिभुंक्तान्मूर्ध्ना वन्देत प्रत्यहम् । तच्छ्रुश्रूषां करोत्येव गत्वा तद्गुण सिद्धये ।। १११ विश्वशर्माकरं दानं चतुर्धा विधिपूर्वकम् । सत्पात्रेभ्यो ददात्येव भक्त्या दातृगुणान्वितः ।। ६२ ।। शृणोति तद्वचो रम्यं निःशेषं तत्त्वसूत्रकम् । सार्द्ध स्वपरिवारेण वैराग्याय सुखाप्तये ॥१३॥ जिनेन्द्राणां गणेशानां भक्त्या यात्रां प्रयाति सः । तन्नमस्कारपूजायै सद्धमंश्रवणाथ ५ ।।२४।। मनोवाक्काययोगः सद्धमं श्रीजिनभाषितम् । विश्व सौख्याकरीभूतं तनोत्येकं सदा नृपः ।। ६५ ।। प्रव्रतेपच शीलोषैर्दानैः श्रीजिनपूजनैः | वैराग्यभावनादधः सुघर्म्यध्यानंश्च चक्रभृत् ॥६६॥ सिंहासन समारुह्य सभायां धर्मवृद्धये । धर्मोपदेशमादत्त वाक्य : समंसूत्र ७ स्वजनानां च बन्धूनां भृत्यानां बहुभूभुजाम् । लोकानां स्वर्गमोक्षाय जिनधर्मविचारकः ॥ वाचा वदति सद्धमं स्थापयेच्चिन्तयेदृधृदि । तच्छ्रुश्रूषामवादङ्गनेति घमयोऽभवत् ॥ ६६॥ चक्रवर्तिभवा लक्ष्मी राज्य षट्खण्डभूभवम् । मान्यं देवनृपार्थश्च नुतिः पूज्यपदं महत् ।। १०० ॥ प्रभावना करने वाला वह चक्रवर्ती लोगों के साथ मिलकर नाना प्रकार की विभूति से भी तोर्थंकरों के महान महोत्सवों को संपन्न करता था ।।६।। वह प्रतिदिन निर्प्रस्थ गुरुयों को शिर झुका कर वन्दना करता था और उनके गुणों की प्राप्ति के लिये नियमपूर्वक जाकर उनकी सेवा करता था ।। ६१ ।। दाता के श्रद्धा तुष्टि आदि गुरणों से सहित चक्रवर्ती नियम से भक्तिपूर्वक सत्पात्रों के लिये यथाविधि समस्त सुखों की खान स्वरूप चार प्रकार का दान देता था ।। ६२ ।। वह वैराग्य तथा सुख की प्राप्ति के लिये अपने परिवार के साथ सत्पात्र निम्य गुरुथों के तस्वोपदेशक समस्त सुन्दर वचनों को सुनता था ॥९३॥ वह नमस्कार तथा पूजा करने और समीचीन धर्म को सुनने के लिये भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र देव तथा गणधरों की यात्रा के लिये भी जाता था ।। ६४ ।। वह राजा समस्त सुखों की खानभूत जिनेन्द्र प्रतिपादित अद्वितीय सद्धर्म को मन वचन काय - तीनों योगों से विस्तृत करता कर ॥६५॥ अहिंसा आदि पांच अणुव्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षाव्रत रूप सात शीलों के समूहों, चार प्रकार के दानों, श्रीजिनेन्द्र देव की पूजाओं और वैराग्यभावना से युक्त उत्तम धध्यानों से युक्त चक्रवर्ती सभा में सिंहासन पर आरूढ होकर धर्मवृद्धि के लिये सद्धर्मसूचक वाक्यों के द्वारा धर्मोपदेश देता था ।। ६६-६७।। जिन धर्म का विचार करने वाला वह बच्चनाभि चक्रवर्ती, अपने कुटुम्बोजनों, बन्धुनों, सेवकों तथा अन्य अनेक राजाओं को स्वर्ग तथा मोक्ष के लिये शब्दों द्वारा समीचीन धर्म का उपवेश देता था, स्वयं अपने हृदय में उसकी स्थापना तथा चिन्तना करता था, और शरीर से उन सब की सेवा करता था, इस प्रकार वह धर्ममय हो रहा था ।। ६८ ।। चक्रवर्ती की लक्ष्मी, देव तथा राजाओं प्रावि के द्वारा मान्य टखण्ड वसुधा का राज्य, नमस्कार, महान् पूज्यपद तथा अन्य सार
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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