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________________ • नवम सर्ग 2 [ १११ रत्नदीपैर्महाधूपः फल कल्पतरूद्भवः । कुसुमाञ्जलिसवातीत 'नृत मनोहरेः ॥७४।। यादिवर्जयशब्दावस्तुतिस्तोत्ररनेकधा ।पुण्यकारणभूतैश्च स्वानन्देन महोत्सवैः ॥७॥ अनु चैत्यनगस्थानां बिम्बानामर्चनं परम् । स व्यधात्परया भक्त्या सिद्धयेऽष्टविधं मुदा १७६।। ततोऽमरगरणः साकमभिषेकपुरस्सरम् ।विभूत्या परया शक्र: स्वराज्य स्वोचकार सः ||७७!! करोति तीर्थकतृणां पञ्चकल्याण केऽर्चनाम् । सा स्वपरिवारेण गत्वा सिद्धर्ष महोत्सवः ११७८।। ज्ञाननिरिणकालेऽसौ केवलज्ञानिनां सदा । महामहं विधत्ते ऽति भक्त्याभूत्यावहानये ॥७॥ मंवेगजननी सारां दिव्यां विश्वहितंकराम् । स्वकोष्ठे ह्य पविष्टोऽसौ जिनवाणीं शृणोत्यपि।८०॥ त्रैलोक्यतिनों सर्वा जिनार्चा सोऽनयेन्मुदा । मेरुनन्दीश्वरादी च निरन्तं कृत्रिमेतराम् ॥८॥ हरिविष्टरमारूढः सभायां नाकिनां सदा । हिताय बुरुते दक्षः सम्यक्त्वगुणवर्णनम् ।।२।। अनेकान्तात्मक मार्ग जिननाथमुखोद्भवम् । तत्वसंगभितं दृष्टिविशुद्धघं दिशति स्फुटम् ।। ८३।। हविहीनाः सुरास्तत्रोत्पद्यन्ते ये तपोबलात् । तेषां धर्मोपदेशाद्य ग्राहयत्याशु दर्शनम् ॥८४।। समुत्पन्न पुष्पों से, अमृतमय पिण्ड द्वारा निर्मित उत्कृष्ट नैवेद्य से, रत्नमय बीप से, महाधूप से, कल्पवृक्षों से उत्पन्न फलों से, पुष्पाञ्जलियों के समूह से, मनोहर गीत नृत्य वादित्र जय जय प्रादि शब्द, अनेक प्रकार के स्तुति-स्तोत्रों तथा पुण्य के कारणभूत अनेक महोत्सवों से निजानन्द पूर्वक महामह पूजा की ।।७२-७५।। चैत्यालयस्थ जिनप्रतिमाओं की पूजा के अनन्तर उसने सिद्धि के लिये चैत्यवृक्षों के नीचे स्थित जिनप्रतिमानों को उत्कृष्ट अष्टविष पूजा परम भक्ति से हर्षपूर्वक की ॥७६।। तदनन्तर उस इन्द्र ने वेव समूह के साथ अभिषेक पूर्षक परमविभूति से अपना राज्य स्वीकृत किया ॥७७॥ वह तीर्थंकरों के पञ्चकल्याणकों में अपने परिवार के साथ जाकर सिद्धि के लिये महोत्सव पूर्वक पूजन करता था ॥७॥ वह केवलज्ञानियों के ज्ञान और निर्वाण के समय सदा पापों की हानि के लिए प्रत्यन्त भक्ति से वैभव पूर्वक महामह पूजा करता था ॥७९।। अपने कोठा में बैठा हुअा वह इन्द्र वैराग्य को उत्पन्न करने वाली, सारभूत, विध्य तथा सफल जन हितकारी जिनवारगी को भी सुनता था 11०। वह मेरु तथा नन्दीश्वर आदि में विद्यमान त्रिलोकवर्ती समस्त कृत्रिम अकृत्रिम प्रतिमाओं की हर्षपूर्वक पूजा करता था।८१। सभा में सिंहासन पर बैठा हुआ यह चतुर इन्द्र देवों के हित के लिये सम्यक्त्व के गुणों का वर्णन करता था ॥२॥ सम्यग्दर्शन की विशुद्धता के लिये जिनेन्द्र भगवान के मुख से उत्पन्न, तत्त्वभित, अनेकान्तात्मक मार्ग का स्पष्ट उपदेश देता था ।।८३।। यहां तप के बल से जो मिथ्याइष्टि देव उत्पन्न होते थे उन्हें धर्मोपदेश आदि के द्वारा शीघ्र ही १ न स्य. २. ऐश्वर्यण ३. मोर्चयन क. ४. मिहामनं ५. देवानाम् ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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