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________________ * दशम सर्ग [१२५ सरत्सरोजवि मल्यापासचम् । विद्यार्णवं स्वसूनोर्वेक्षन दिव्यं सरोवरम् ।। १०२।। क्षुभ्यन्तमब्धिमुवेल सादर्शन्मरिणसंकुलम् । दृग्ज्ञानवृत्तरत्नानां स्वस्य पुत्रस्य वाकरम् ।।१०३।। सिंहविष्टरमुत्त ङ्ग मरिण रश्मिचयाकुलम् । सापश्यामेशृङ्ग वा स्थितं सिंहासन परम् ।।१०४।। स्वविमानं व्यलोकिष्ट पराद्धर्ष रत्नभास्वरम् । भाण्डागारं स्वसूनोर्वा गादिमरिणतेजमाम् ।।१०।। मागेन्द्र भवनं पृथ्वीमुद्भिद्योद्गतमक्षत । स्वसूनो: प्रसवागारमिव देवापितं महत् ।।१०६।। रत्नराशि महोत्सर्पदंशुपल्लविताम्बरम् । सा ददर्श स्वपुत्राङ्गभामण्डलमिधोत्थितम् ॥१०७।। ज्वलभिद धूममद्राक्षीत्सा दीप्त विषमाचिषम् । स्वात्मजस्य ज्वलन्तं वा ध्यानाकर्मन्धनोत्करम्।१०। स्वप्नान्ते सा व्यलोकिष्ट गजमैरावताभिषम् । प्रविशन्तं स्वचक्त्रार्ज जिने शतुग्विधायिनम् ।।१०।। मालिनी इति सुकृतविपाकादिव्यस्वप्नान् ददर्श जिनवरसुतजन्मासूचकान्सा जिनाम्बा । विविधविभवकीत्यों द्यादिसपादनाद्धि त्रिभुवनपतिमोदाकारकान् सद्गजादीन् ।। ११०॥ मछलियों को देखा जो अपने नेत्रों की अद्भुत लम्बाई को ही मानों दिखला रही थों, ।।१०।। तदनन्तर तैरते हुए कमलों की केशर से जिसके जल का समूह पीला पोला हो रहा है तथा जो अपने पुत्र के विद्यारूप सागर के समान जान पड़ता था ऐसा सुन्दर सरोघर देखा ।।१०२॥ पश्चात् जो तट का उल्लङ्घन कर रहा है, मरिणयों से व्याप्त है और अपने पुत्र के दर्शन ज्ञान चारित्ररूपी रत्नों की खान के समान प्रतीत हो रहा है ऐसे लहः राते हुए समुद्र को देखा ॥१०३॥ तदनन्तर उसने मरिणयों के किरण कलाप से व्याप्त उस ऊंचे सिंहासन को देखा जो मेरु के शिखर पर स्थित दूसरे सिंहासन के समान्य जान पड़ता था ॥१०४॥ पश्चात् उत्कृष्ट रत्नों से वेदोप्यमान यह स्वविमान देखा जो अपने पुत्र के सम्यग्दर्शनादि मणियों के तेज का मानों भाण्डार ही था ।१०५॥ पश्चात् पृथिवी को भेव कर प्रकट हुए नागेन्द्र के उस भवन को वेखा जो अपने पुत्र के देव प्रदत्त महान प्रसूतिगृह के समान था ॥१०६।। तदनन्तर ऊपर की ओर उठती हुई अपनी बड़ी बड़ी किरणों से जिसने प्राकाश को पल्लवित कर दिया है ऐसी रत्नराशि को देखा । वह रत्नराशि ऐसी जान पड़ती थी मानो अपने पुत्र के शरीर का भामण्डल ही उठकर खड़ा हुआ हो ॥१०॥ पश्चात् उसने देदीप्यमान जलती हुई निधूम अग्नि देखी। वह अग्नि ऐसी जान पड़ती थी मानों ध्यान से अपने पुत्र के कर्मरूपी इन्धन के समूह को ही जला रही हो ॥१०।। स्वप्नों के अन्त में उसने अपने मुख कमल में प्रवेश करता हुमा ऐरावत नामका हाथी देखा। वह ऐरावत हाथी यह सूचना दे रहा था कि तेरे तीर्थकर पुत्र उत्पन्न होगा ॥१०॥ इस प्रकार पुण्योदय से जिन माता ने तीर्थकर पुत्र के जन्म को सूचित करने वाले वे उत्तम मज प्रादि दिध्य स्वप्न देखे जो विविध प्रकार के वैभव और कीर्तिसमूह प्रादि के
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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