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________________ १२४ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित * सापश्यत्षोडश स्वप्नानिमान् पुत्रफलाङ्कितान् । निशायाः पश्चिमे यामे जिनजन्मानुशंसिनः ॥२॥ सुरेमं पर्वताकारमुत्तङ्ग मन्द्रवू हितम् गवेन्द्र दुन्दुभिस्कन्धं कुन्दमुक्ताफलद्य ुतिम् मृगेन्द्र चन्द्रसच्छायशरीरं रक्तकन्धरम् लक्ष्मी रत्नमयोत्तङ्गविष्टरे देवदन्तिभिः १ दामनी कुसुमामोदाकृष्टलग्नमदालिनी के । त्रिमस्त्र तमद्राक्षीदुध्चनन्तं वा शरदूधनम् ||६३।। । पीयूष पुज्जनीकाशं सापश्यन्मदनिःस्वनम् ॥६४॥ प्रतापं वा स्वपुत्रास प्रदर्श महेज्जितम् ।।५।। | स्नाप्यां हिरण्मयैः कुम्भैरपश्यत्स्वामिव श्रियम्। ६६ ।। | तज्झांकृरिवारब्धमाने जिनस्य संक्षत॥६७॥ सम्पूर्णबिम्बमुज्ज्योत्स्नं ताराश्रीशं सतारकम् । कान्तिव्रजं स्वसूनोर्वा सा सानन्दमलोकयत् ।। ६८ । निधूं तध्वान्तमुद्यन्तं भास्वन्तमुदयाचलात् | मूर्तीभूतमिव ज्ञानं साद्राक्षीत्स्वात्मजस्य वे ॥६६॥ कुम्भौ स्वर्णमय पद्मपिहितास्यो ददर्श सा । स्वकीयस्नानकुम्भ वा मुखलग्नकराम्बुजी ।। १०० ॥ ॥ । दर्शयन्ताविवापश्यत्स्वनेत्रायाममद्भुतम् ।। १०१ ।। झर्षो सरोवरे फुल्लकुमुदाब्जच ये सती प्रहर में पुत्र रूप फल से सहित जिनेन्द्रजन्म को सूचित करने वाले ये सोलह स्वप्न देखे ॥६२॥ सर्व प्रथम जिसका प्राकार पर्वत के समान था, जो ऊंचा था, गम्भीर गर्जना कर रहा था, तीन स्थानों से मद भरा रहा था और गर्जते हुए शरद् ऋतु के भेघ के समान था ऐसे ऐरावत हाथी को देखा || ६३|| तदनन्तर दुन्दुभि के समान कांधोल से युक्त, कुन्द श्रौर मुक्ताफल के समान कान्ति से सहित अमृत पुज्ञ समान तथा मद से जोरदार शब्द करने वाले उत्तम बल को देखा || ६४॥ पश्चात् जिसका शरीर चन्द्रमा के समान कान्ति वाला था, जिसकी ग्रीवा लाल थी और जो अपने पुत्र के प्रताप के समान जान पड़ता था ऐसा महा बलवान सिंह देवा ||५|| तदनन्तर जो रत्नमय कंचे सिंहासन पर श्रारूढ है देवराज सुवर्ण कलशों से जिसका अभिषेक कर रहे हैं और जो अपनी ही लक्ष्मी के समान जान पड़ती है ऐसी लक्ष्मी को देखा ।।६६|| पश्चात् फूलों की सुगन्ध से प्राकृष्ट होकर जिन पर भ्रमर लग रहे हैं और उन भ्रमरों की झांकार से जो जिनेन्द्र देव के गुणगान ॥६७॥ तदनन्तर जो करती हुई सी जान पड़ती हैं ऐसी वो मालानों को उसने देखा संपूर्ण मण्डल से सहित है, उत्कृष्ट चांदनी से युक्त है, तारानों से परिवृत हैं और अपने के कान्ति समूह के समान जान पड़ता है ऐसे चन्द्रमा को उसने बड़े हर्ष के साथ देखा पुत्र ||१८|| पश्चात् जिसने अन्धकार को नष्ट कर दिया है, जो उदयाचल से उदित हो रहा है और अपने पुत्र के साकार ज्ञान के समान जान पड़ता है ऐसे सूर्य को उसने देखा ॥६६॥ तदनन्तर जिनका मुख कमलों से आच्छादित है, तथा जो मुख पर संलग्न कर कमलों से युक्त अपने स्नान कलशों के समान जान पड़ते हैं ऐसे स्वर्णमय को कलश देखे ॥१००॥ पश्चात् जिसमें कुमुद और कमलों का समूह खिल रहा है ऐसे सरोवर में विद्यमान उन दो १. सुरगजे : २ मा ३ मा+ऐवत ४. चन्द्रमसम् ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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