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________________ २०२ ] मोहारा जियोद्योगमधुना प्रकम्पतेऽद्य कामारि: जगत्त्रयमिदं देव * श्री पार्श्वनाथ चरित # संविधित्सुना । भव्याङ्गितां जगन्नाथ बन्धुकृत्यं स्वहितम् ॥६॥ संवेगातिकराङ्कितम् । दृष्ट्वा त्वां हा हतो हीत्युक्त्वा नाथ द्विप्रियायुतः धर्महस्तावलम्बनंः । श्रज्ञानकूपपातात्त्वं कारुण्यादुद्धरिष्यसि ।।११।। निष्पादितं धर्मपोतमारुह्य दुस्तरम् । उत्तरिष्यन्ति भव्यौषा जिनानन्तभवाम्बुधिम् ।१२ वागंशुभिर्मोहनिद्रास्तचेतनम् । बोधयिष्यसि विश्वं त्वं स्वर्गमोक्षाध्वदर्शिभिः ॥ १३ निमग्नान्प्राणिनस्त्वमुद्धरिष्यसि । कृपया नाथ धर्मोपदेश हस्तावलम्बनः | १४ || त्रातारं शरणार्थिनाम् । हन्तार कर्मशत्रूणां त्वां वदन्ति विचक्षणाः ११५॥ एवं स्वयम्भूः स्वयंबुद्धस्त्रिज्ञानालङ्कतः सुधीः । अस्मान्मुक्तिपथं नाथ बोर्घापितासि निष्तुषम् | १६ | बोध्यस्त्वमस्मदादिभिरेव हि । दीयते कि प्रकाशाय रवेर्दीवी जगद्गुरो ।।१७।। पुष्पैरचंन क्रिमते शठः । तथा संबोधनं तेऽस्माभिनियोगाय केवलम् ।। १८ ।। ज्ञानमूर्त न "वनस्पतेर्यथा त्वया देव पापप मोहमल्ल विजेतारं हे जगन्नाथ ! इस समय मोहरूपी शत्रु को जीतने की इच्छा करते हुए आपने भव्य जीवों के प्रति बन्धु का कार्य करने की चेष्टा की है । हे नाथ ! जिनका हाथ संवेग रूपी खड्ग से सहित है ऐसे प्रापको देखकर श्राज रति और प्रीतिरूपी दो प्रियानों से युक्त कामदेव 'हाय मारा गया' यह कहकर थर थर कांपने लगा है ।।१०।। हे देव ! आप दया भाव से धर्मरूपी हाथ का आलम्बन देकर इस जगत्त्रय को प्रज्ञानरूपी कूप में पतन से उधृत करोगे || ११ || हे जिन | आपके द्वारा निर्मापित धर्मरूपी जहाज पर श्रारूढ होकर भव्य जीवों के समूह कठिनाई से पार करने के योग्य अनन्त संसाररूपी सागर को पार करेंगे ।। १२ ।। हे देव ! मोहरूपी निद्रा से जिसको चेतना नष्ट हो गई है ऐसे विश्व को आप स्वर्ग तथा मोक्ष का मार्ग दिखलाने वाली वचनरूपी किरणों के द्वारा जागृत करेंगे ||१३|| हे नाथ ! प्राप दयाभाव से धर्मोपदेशरूपी हाथ का आलम्बन देकर पापपङ्क में डूबे हुए प्राणियों का उद्धार करेंगे || १४ || विद्वान् लोग श्रापको मोहरूपी महल के विजेता, शरणाथियों के रक्षक तथा कर्मरूपी शत्रुओं का धात करने वाला कहते हैं ।। १५१ । हे नाथ ! प्राप स्वयंभू हैं, स्वयं बुद्ध हैं, तीन ज्ञानों से अलंकृत हैं तथा उत्तम बुद्धि से युक्त हैं अतः हम सबको निर्दोष मुक्ति का मार्ग बतलायेंगे ||१६|| हे ज्ञानमूर्ते ! यह निश्चित है कि प्राप हम लोगों के द्वारा बोध्य नहीं हैं अर्थात् श्रापको संबोधित करने की योग्यता हम लोगों में नहीं है। यह ठीक ही है क्योंकि जगद्गुरो ! सूर्य को प्रकाशित करने के लिये क्या वीपक दिया जाता है ? अर्थात् नहीं दिया जाता ||१७|| जिस प्रकार प्रज्ञानी जमों द्वारा फूलों से वृक्ष का पूजन किया जाता है उसी प्रकार हम लोगों के द्वारा प्रापका संबोधन मात्र १. द्विप्रिया ययौ ख० द्वित्रिय यो घ० २. जगद्गुरुः ग० जगद्गुरुम् ० ० ३. वनस्पत्या ० ० ब० ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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