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________________ * श्री पार्श्वनाथ चरित * तस्मिन्नुपद्रवे सोऽतिनिःश को निभयो व्यपात् । घ्याने परात्मनोऽनन्तगुणसिन्धोनिजं मनः ।।१०४।। निःसंकल्पं निरावाचं द्विधाराधन-तत्परम् । भयसप्तवान:कान्तं संवेगादिगुणाङ्कितम् ।।१०।। न वेदयत्यसो धीरस्तस्कृतां बहुधा व्यथाम् । ध्यानाविष्टेन चितेन संकल्पाभावतस्तदा ।।१०६।। प्रभूत् स हत्यमानोऽपि सघानामृतपानतः । निःशल्पोऽतिनिराबाधो भयसप्तविनिर्गत: ।।१०७।। पीडधमानोऽपि सोऽगान्न मनागपि कुविक्रियाम् । चन्दनं च यथा लोके खण्डनं दहनादिकैः ॥१०|| क्षमा विधाय कर्मनां प्राणान्तेऽपि व्यधान्न सः । मनाककोप तपोधचित्तादिवनेऽनलम् ॥१०६।। अहो धन्यास्त एवात्र येषां याति न विप्रियाम् । मनः शत्रु कृतोरस्पद्रव कदम्बकः ।।११।। प्रशस्यारते मुनीन्द्रा हि महान्तो धैर्यशालिनः । येषां चालयितु पाक्यं ध्यानं नात्रात्युपदवः ॥१११।। वन्धाः स्तुत्यास्त एवात्र कायोत्सर्गयमादिकम् । मुञ्चन्ति प्राणनाशेऽपि ये न सर्वेः परोषहैः ॥११२।। सहित्वा तत्कृतां वा दशप्रारणान्तकारिणीम् । निश्चयव्यवहाराख्यां चतुराराधना बराम् ।।११३।। सर्ग किया ॥१०२-१०३॥ उस उपद्रव के बीच अत्यन्त निःशड तथा निर्भय मुनिराज ने अपना मन प्रनन्त गुरणों के सागर स्वरूप परमात्मा के ध्यान में लगाया ॥१०४।। उस समय उनका मन संकल्प रहित था, वाधा रहित था, निश्चय और व्यवहार के भेद से दोनों प्रकार की प्राराधनाओं में तत्पर था, सात भयों से रहित था और संवेग प्रादि गुणों से युक्त था॥१०५॥ वे धीर बीर मुनिराज उस समय संकल्प का प्रभाव होने से ध्यान में लवलीन चित्त से उस भोल के द्वारा की हई नाना प्रकार की पीड़ा का देवन नहीं कर रहे थे ॥१०६॥ मारे जाने पर भी वे महामुनि सवर्मरूपी अमृत के पान से निःशल्य, अत्यन्त निरागाध, और सातभयों से रहित थे ॥१०७॥ जिस प्रकार लोक में चन्दन, खण्डित करने तथा अलाये जाने प्रावि से विकार को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार के मुनिराज पोरित किये जाने पर भी रकममात्र विकारभाव को प्राप्त नहीं हुए ॥१०॥ उम मुनीश्वर ने कमों को नष्ट करने वाली क्षमा धारण कर प्राणान्त होने पर भी, तप, धर्म, ज्ञान तथा चारित्र प्रादि वन को भस्म करने के लिये अग्नि स्वरूप क्रोध रञ्चमात्र भी नहीं किया था ।।१०६॥ महो ! इस संसार में ये ही मनुष्य धन्य हैं जिनका मन शत्रुनों के द्वारा किये हुए भयंकर उपसगों के समूह से विकारभाव को प्राप्त नहीं होता है ।।११०।। धर्य से सुशो. भित वे महामुनि ही प्रशंसनीय हैं जिनका ध्यान इस जगत् में उपद्रवों के द्वारा चलाया नहीं जा सकता ॥१११॥ समस्त परीषहों के द्वारा प्राणनाश की स्थिति पाने पर भी ओ इस लोक में कायोत्सर्ग तथा संयम प्रादि को नहीं छोड़ते हैं वे ही बन्बनीय तथा स्तवनीय हैं ॥११२॥ इस प्रकार यश प्राणों का अन्त करने वाली भिल्लकृत वाधा को सहन कर १. निश्चयपवहारभेदेन द्विघा २ गोरैः क. १. ३. उपद्रवमूहै. ४ नात्राप्युपद्रवैः खः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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