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________________ * पञ्चम सर्ग * प्राराध्यादाय, संन्यासं सर्वयलेन तत्क्षणम् । शुद्धि रत्नत्रये कृत्वा मुक्त्वा प्रासान् समाधिना ।११।। सुभद्राख्ये विमाने हि मध्य ग्रेवेपके शुभात् । अहमिन्द्रो मुनिः सोऽभूनमध्यत्रिकस्य मध्यमे ।। ११५।। शालविक्रीडितम् एवं क्षान्तिजधर्मपाकविविधात्कोपारिसंहापनाद्र । वृत्ताद्या चरणात्परीषहजगाज्जातोऽहमिन्द्रो मुनिः ।। मत्वेतीह निहत्य कोपरिपु श्वभ्रार्गलोच्छाटका, क्षान्ति विश्वगुणाकरा सुमनयो यत्नाद्भजध्वं सदा ।।११६।। मान्त्या शर्मपरम्परां नृसुरजां भुक्त्वा शिवं यान्त्यहो, ___ माः कोपवशाह रन्तकुगती: श्वभ्रादिका दुःसहाः । शाल्वैवं सुखदुःखदं बहुफलं सर्व क्षमाकोपयोः, कुर्वीध्वं मुनिपुङ्गवास्तदखिलं स्वेष्टं च यद्भूतये ।।११।। उन्होंने निश्चय व्यवहार नामक चार प्रकार की उत्कृष्ट प्राराधनामों की प्राराधना की, संन्यास धारण किया और सब प्रकार के प्रयत्नों से उस समय रत्नत्रय में विशुद्धता उत्पा कर समाधि से प्रारण छोड़े । संन्यास मरण के फलस्वरूप वे मुनिराज पुण्योदय से मध्य में स्थित तीनग्रं वेयकों के मध्यमप्रबेयक सम्बन्धी सुभद्र नामक विमान में अहमिन्द्र हुए। भावार्य-सोलहवे स्वर्ग के ऊपर एक के बाद एक के क्रम से नौ प्रवेयक हैं। ये प्रयक तीन तीन के त्रिक से अधोग धेयक, मध्यमग्न धेयक, और उपरितन प्रवेयक कहलाते हैं। उनमें से मध्यम त्रिक के मध्यम विमान सम्बन्धी सुभद्र नामक विमान में वे महमिग्न हए ॥११३-११५।। इस प्रकार क्षमा से उत्पन्न होने वाले धर्म के विविध प्रकार के उदय से, क्रोधरूप शत्रु का घात करने से, चारित्र आदि का प्राचरण करने से तथा परीषहों को जीतने से वे मुनिराज प्रहमिन्द्र, हुए ऐसा मानकर प्रहो मुनिजन हो ! क्रोधरूपी खोटे शत्रु को नष्ट कर सदा यत्न पूर्वक उस क्षमा को धारण करो जो नरक के द्वार पर पागल को देने वाली है तथा समस्त गुणों की खान है ।।११।। क्षमा के द्वारा मनुष्प, ममुष्य तथा वेवगति में उत्पन्न होने वाली सुख सन्तति का उपभोग कर मोक्ष को प्राप्त होते हैं और क्रोध के बश नरकादिक दुःसह तथा दुःख दायक कुगतियों को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार क्षमा और क्रोध के सुख दुःला चायक सब प्रकार के बहुत फल को जानकर है मुनिराज हो ! प्रात्म संपदा के लिये जो तुम्हें इष्ट हो वह सब करो ॥११७॥ १. स्यक्त्वा व. २. क्रोधशत्रुसंत्यजनात् ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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