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* श्री पाश्वनाथ चरित * सवैसङ्गपरित्यागान्मोह-शत्रु-बिनाशनात् । कामेन्द्रियारिसंघातात् परोषहजयाद् वृषात् ।।१६।। मूलोत्तमुणाचाराधानाध्ययनकर्मभिः । तपसा साध्यते धीरैः स धर्मो यतिगोचरः ॥२०॥ घमों निष्पाद्यते दक्षः क्षमादिदशलक्षणः: । व्युत्सर्गश्च वपुःक्लेशः प्रत्यहं वनवासिभिः ।।२१।। मुनिधर्म सुखाब्धिं त्वं हत्वा मोहमहाभटम् । पाणिग्रहण कर्म गृहागाशु नृपात्मज ॥२२।। भागतृष्णाविषं हत्वा पीत्वा मुनिवचोऽमृतम् । कुमारः प्राप्य संवेग व्यधाचिन्ता हृदीत्यहो ।।२३।। घ्र वं तपो महत्कार्य कुमारत्वेऽपि धौधनैः । वृद्धत्व वा समायाति न वा न ज्ञायते क्वचित् ।।२४।। ग्युत्सर्ग दुःकरं योग धुतपार' खनिग्रहम् । परीषहजयं कतु यौवनस्थश्च शक्यते ॥२५॥ शुक्लध्यानक्षमा सर्वसिद्धान्तज्ञा विकिनी । उत्पंद्यले महाबुद्धियों दने विश्वदशिनी ।।२६।। कषायवैरिरणा सन्यं महोपसर्गदुर्जयम् । प्रन्यता दुःकर जेतु युवभिः शक्यतेऽखिलम् ।।२७।।
-.-.- - - -- - - करते हैं ॥१८॥ समस्त परिग्रह के त्याग से, मोहरूपी शत्रु के नाश से, कामेन्द्रियरूपी शत्रु का प्रच्छी तरह घात करने से, परीषहों को जीतने से, उत्तम क्षमा आदि धर्मो से, मूलगुण और उत्तर गुरगों के आचरण से, ध्यान अयमान रूप से तपासान प्रावि तप से पह मुनिधर्म धीर वीर मनुष्यों के द्वारा सिद्ध किया जाता है प्राप्त किया जाता है ॥१६२०।। जो वक्ष शक्तिशाली हैं, क्षमा प्रादि दशलक्षण धर्मों से सहित हैं, कायोत्सर्ग करते हैं, मातापन प्रादि योगों के द्वारा कायक्लेश करते हैं और निरन्तर धन में निवास करते हैं ऐसे मनुष्यों के द्वारा ही मुनिधर्म निष्पन्न किया जाता है ॥२१॥ हे राजकुमार ! तू मोह रूपो महायोद्धा को नष्टकर विवाह सम्बन्धी कार्य का परित्याग कर और शीघ्र ही सुख के सागरस्वरूप मुनिधर्म को ग्रहण कर ॥२२॥
मुनिराज के बच्चनरूपी अमृत को पीकर तथा भोगतृष्णा रूपी विष को नष्ट कर कुमार अग्निवेग संवेग को प्राप्त हो गया-संसार से भयभीत हो गया और मनमें इस प्रकार विमार करने लगा ।।२३।। अहो ! बुद्धिरूपी धन को धारण करने वाले मनुष्यों को कुमार अवस्या में भी निश्चित महान तप करना चाहिये क्योंकि वृद्धावस्था प्रायगी या नहीं, यह कहीं नहीं जाना जाता ॥२४।। शरीर से ममता भाव छोड़कर कायोत्सर्ग करना, आतापन प्रादि कठिन योग धारण करना, शास्त्रों का पढना, इन्द्रिय-निग्रह करना और परीषहों को जीतना यह सब तरुण मनुष्यों के द्वारा ही किया जा सकता है ॥२५॥ शुक्लध्यान में समर्थ, समस्त सिद्धान्तों को जानने वाली, विवेकवती तथा समस्त पदार्थों को देखने वालो
महाबुद्धि यौवन अवस्था में उत्पन्न होती है ॥२६।। कषायरूपी वैरियों की सेना, दुर्जेय __ महोपसर्ग अथवा अन्य समस्त कठिन शत्रु तरुणजनों के द्वारा ही जीते जा सकते हैं ॥२७॥
१. इन्दिर नग