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* नवम सर्ग .
[१०५ लावण्यजलधेलाः शृङ्गाररसखानयः ।एता दिव्यस्त्रियः सेव्याः कलाविज्ञानभूषिताः ।। इदं मत्तगजानीकमतोऽश्वीयं मनोजवम् । एते हेमरपास्तुना बलान्येते पदातयः ॥११॥ नमन्ति मे पदद्वन्द्व सर्वकार्यकराण्यहो ।एतानि सप्तसन्यानि भक्त्या विज्ञप्तिपूर्वकम् ॥१२॥ अमी क्रीडाद्रयो रम्या एते विजय केतवः । चत्यवृक्षा इमे तुङ्गा जिनचत्यचयारिताः ॥१३॥ प्रयं चैत्यालयो रम्यस्तेजःपुजनिभो व्यभात् । बिम्बरन_माणिक्यमय ररननजासितः ।।१४।। मामुद्दिश्य समस्तोज्यं जन प्रानन्दनिर्भरः । विनीत: सुन्दरः केन कारणेनात्र वर्तते ।।१।। इत्यादि चिन्तमानस्य तस्येन्द्रस्य विनिश्चयः । साश्चर्यमनसो यावन्नायास्प्राम्जन्मसूचकः ॥१६॥ तदाकृतं परिज्ञाय सचिवा ज्ञानचक्षुषः । तावदागत्य वर्तन्ते नत्वा वक्तु तदीहितम् ॥१७॥ प्रसादः क्रियता नाथ नतानां नो दृशेछया । श्रूयतां नो वचः सत्यं सर्वसन्देहनाशकम् ॥१८॥ अद्य स्वामिन्वयं धन्याः सफलं नोऽध जीवितम् । यतः पवित्रिता: स्वर्गसंभवेन त्वयाघुना ॥१६॥ प्रसीद जय जीव स्वं नन्द बर्द्ध स्व भूतले । प्रभुभव समग्रस्य देवलोकस्य सम्प्रति ॥२०॥
नृत्य हो रहा है ॥६॥ ये सौन्दर्य सागर की वेला, शृङ्गाररस को खान, और कलाविज्ञान से विभूषित, सेवन करने के योग्य देवाङ्गनाएं हैं ॥१०॥ यह मदमाते हाथियों की सेना है, यह मन के समान वेग वाला घोड़ों का समूह है, ये ऊचे सुवर्ण रय हैं और ये पैदल सैनिक हैं ॥११॥ ग्रहो ! समस्त कार्यों को करने वाली ये सात प्रकार की सेनाएं' भक्ति से प्रार्थना करती हुई मेरे चरण युगल को नमस्कार करती हैं ॥१२॥ ये मनोहर क्रीडा गिरि है, ये विजय पताकाएं हैं, ये जिन प्रतिमानों के समूह से युक्त ऊचे ऊचे चस्य वृक्ष हैं ॥१३॥ सेजपुञ्ज के समान रमणीय तथा रत्नों के समूह से युक्त यह चैत्यालय प्रमूल्य मरिणमय प्रतिमानों से सुशोभित हो रहा है ॥१४॥ यहाँ मानन्द से भरा हुआ यह समस्त सुन्दर जन समूह मुझे लक्ष्य कर किस कारण विनीत हो रहा है ? ॥१५॥ इत्यादि विचार करने वाले साश्चर्यचित्त से युक्त उस इन्द्र के जब तक पूर्वजम्म को सूचित करने वाला निश्चय नहीं होता है॥१६।। तब तक उसकी चेष्टा जानकर जाननेत्र के धारक मन्त्री पाये और नमस्कार कर उसकी इष्ट बात को कहने लगे ॥१७॥
हे नाथ ! हम नम्रीभूत लोगों पर स्वेच्छा से दृष्टिपात कर प्रसन्नता कीजिये तया समस्त सन्देह को नष्ट करने वाले हमारे सत्य वचन सुनिये ॥१८॥ हे स्वामिन् । प्राज हम धन्य हुए, माज हमारा औवन सफल हो गया, क्योंकि इस समय स्वर्ग में जन्म लेकर प्रापने हम सब को पवित्र किया है॥१६॥ प्राप इस लोक में प्रसन्न रहो, जयवन्त प्रवर्तो, जीवित रहो, समृद्धिमान् होत्रो, वृद्धि को प्राप्त होते रहो, और अब समस्त स्वर्ग के
१. अश्व समूहः ।