SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित कृत्स्नकल्याण सागरः ||२२|| देव पूर्वभव पुण्यं यत्किञ्चिद्धि स्वयाजितम् । महद्येनात्र ते जातमिन्द्रत्वं विश्ववन्दितम् ||२१|| आनताख्योऽप्ययं कल्पः संकल्पित सुखप्रदः । देवीदेवांद्र संपूर्णः प्रतीन्द्रप्रमुखा देवा दशधा दिव्यमूर्तयः । इहोत्पन्नस्य शक्रस्य प्रीत्या सेवां प्रकुर्वते ॥ २३ ॥ अत्र संकल्पिताः कामा योवनं शाश्वतं महत् । नित्याश्र महती लक्ष्मीः सुखं वाचामगोचरम् ||२४|| एता व महादेव्य इमा हि बल्लभाङ्गनाः । परिवारस्त्रियो होता रूपलावण्य खानयः ॥२५॥ भतीय सुकुमाराङ्गास्ते' स्नेहासक्तबुद्धयः । स्वेच्छया वेषधारिण्यस्तव नाथ समर्पिताः ॥ २६॥ गावः कामदुधाः सर्वे पादपाः कल्पशाखिनः । स्वभावेनात्र रत्नानि विन्तामाय एव हि ।। २७ । रात्रिर्नादिनं नैव केवलं स्फाटिकोपलं: । शुक्लरत्नविमानंश्च विनश्रीः क्रियतेऽनिशम् ||२८|| प्रावृशीतोष्णकालाधर ऋतवः सन्ति जातु न प्रकः साम्यकालोऽस्ति सर्वोपद्रवदूरगः ॥२६॥ न चात्र दुःखितो दोनो बुढो रोगी गतप्रभः । विकलाङ्गो मदान्धोऽतिशोकक्लेशा दिपीडितः ।। ३० ।। स्वामी हो ||२०|| हे देव ! पूर्वभव में आपने जो कुछ महान प्रबल पुण्य का संचय किया था उसीसे आपको यह विश्वयन्दित इन्द्र पद प्राप्त हुआ है ||२१|| यह संकल्पित सुखों को देने वाला, देवी देव तथा ऋद्धियों से परिपूर्ण समस्त सुखों का सागर धानत नाम का स्वर्ग है ||२२|| सुन्दर वैऋियिक शरीर को धारण करने वाले ये प्रतीन्द्र श्रादि देश प्रकार के देव यहां उत्पन्न हुए इन्द्र की प्रीतिपूर्वक सेवा करते हैं ।। २३ ।। यहां संकल्पित मनोरथ पूर्ण होते हैं, निरन्तर स्थिर रहने वाला बहुतभारी यौवन प्राप्त रहता है, नित्य स्थित रहने वाली बहुत बड़ी लक्ष्मी और वचनागोचर सुख यहां उपलब्ध रहता है || २४|| ये यहां महादेवियां हैं, ये बल्लभाङ्गनाएं हैं और ये रूपलावण्य की खान परिवार स्त्रियां हैं ॥२५॥ ये प्रतीव सुकुमाराङ्गी हैं, और स्नेह से प्रासक्त बुद्धिवाली हैं, हे नाथ ! ये स्वेच्छा से वेषधारिणी श्रापको समर्पित हैं ॥ २६ ॥ यहां की सब गाए' कामदुधा हैं और सारे वृक्ष कल्पशाली हैं और यहां के सारे रत्न स्वभाव से ही चिन्तामरिग हैं अर्थात् यहां की गाए, वृक्ष और रत्न स्वभाव से ही इच्छित पदार्थों के देने वाले हैं ||२७|| यहां न रात्रि होती है और न दिन होता है, केवल स्फटिकमरियों एवं शुवल रत्न वाले विमानों की श्राभा से सदा ही दिन के समान प्रकाश रहता है ||२८|| यहां वर्षा शोन एवं उष्णकाल आदि ऋतुएं किञ्चित् भी नहीं हैं, यहां तो सम्पूर्ण उपद्रवों से रहित एक साम्यकाल ही वर्तता है ॥२६॥ | यहां कोई दुखी, बीन, वृद्ध, रोगी, प्रभाहीन, विकलाङ्ग मवान्ध, प्रतिशोक, क्लेश आदि से पीड़ित, कुरूप, निर्गुण, अन्यायमागंगामी, प्रविनयी, १. सुकुमालाङ्का क० ० । !
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy