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________________ * नवम सर्ग * [ १०७ कुरूपी निर्गुणोऽन्यायमार्गगो विनयच्युतः । उन्मत्तो विह्वलो जातु दृश्यते नव निधनः ।।३१।। विमानपुरसद्धामानीकदेवद्धिसंकुलम् । अप्सरश्चयसंपूर्ण विश्वगीर्वाणवन्दितम् ॥३२॥ सरोवनसभागेहच्छत्रचामरशोभितम् । म कहिमोपेतं विद्धिकुलमन्दिरम् ॥३३॥ गृहाण स्वर्गसाम्राज्यमिदं त्वं देव सम्प्रति । अथ त सन्मुखीपूत प्रामजित--शुमोदमात् ।।३४॥ पाकर्ण्य तद्वचः प्राप्यावधिज्ञान विसंशयम् । ज्ञात्वा प्रावस्वभवं धर्मफलं सोऽत्रेति चिन्तयेत् ॥३५॥ महो तपः पुरा चीर्ण मया घोरतरं महत् । निर्दग्धं विषयारण्यं त्रिधानिवेदन हिना ॥३६॥ मदनारिमहामल्लो हतो ब्रह्मासिना खलः । कषारिपवो दुष्टाः क्षान्तिशस्त्रेण मारिताः ॥३५॥ वितीर्ण भयं दानं भीतानां सर्वदेहिनाम् । महाप्रतानि सर्वाणि पालितान्यपराणि च ॥३८॥ प्रात रोद्रादिदुनि वै हित्वानन्तशर्मकृत् । स्वात्मनश्च कृतं ध्यान त्रिशुद्धया परमेष्ठिनाम् ।३६ "दशलक्षणको धमों मुक्तिस्त्रीचित्तरजकः । अनन्त गुणरत्नाविधर्मया संचरितो महान् ।।४-11 रविवृत्ततपास्याराधितानि प्राग्भवे मया। सर्वशत्या प्रयत्नेन मनोवाकायकर्मभिः ॥४१॥ उन्मत्त, विह्वल, एवं निर्धन विखाई ही नहीं देता ॥३०-३१।। हे देव, विमान, पुर, सद्धाम, अनोक देव प्रावि की ऋद्धि से संकुलित, अप्सरात्रों के समूह से पूर्ण, समस्त देवों द्वारा वन्दित, तालाब, बन, सभाघर, छत्र चामर से सुशोभित, अनेक महिमानों का स्थान, सम्पूर्ण ऋद्धियों के कुलमदिर स्वरूप इस स्वर्ग के साम्राज्य को प्राप अब ग्रहण करें जो पूर्योपाजित शुभ कर्मों के उदय से आपके सामने उपस्थित हैं ।।३२-३४॥ उनके ये वचन सुनकर, संशय रहित अवधिज्ञान को प्राप्त करके तथा अपने पूर्वभव को एवं धर्म के फल को जानकर वह इस प्रकार विचार करने लगा ॥ ३५ ।। अहो ! मैंने पहले महान घोर दारुण तपस्या की थी, तीन प्रकार को निवेदरूपी प्राग से विषयरूपी बन को जलाया था, दुष्ट कामदेवरूपी महान योद्धा को ब्रह्मरूपी तलवार से मारा था, दुष्ट कषायरूपी शत्रुनों का क्षान्ति के शस्त्र से वध किया था, भयभीत समस्त देहधारियों को प्रभयदान का वितरण किया था, समस्त महाव्रत और समिति प्रादि अन्य व्रतों का पालन किया था, मातरौद्र अादि दुानों को छोड़कर त्रिशुद्धि पूर्वक अपने प्रात्मा तथा परमेष्ठियों का अनन्तसुखदायक ध्यान किया था, मुक्तिरूपी स्त्री के चित्त को प्रसन्न करने वाला वशलक्षणिक धर्म धारण किया था, अनन्तगुणरूपी रस्नों के महासागर में संचार किया था, पूर्वभव में मैंने मन वचन काय से सम्पूर्ण शक्ति के द्वारा प्रयत्न पूर्वक दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप को अाराधना की थी ॥३६-४१॥ जो जगत् में सारभूत है, समस्त पापरूपी अन्धकार को नष्ट १. विमानयुगद्धा मदेवटिकृलमन्दिरम् क. २. इमास्तिस्रः पङक्तयः क. प्रतौ न सन्ति, लेखकप्रमादेन धुटिता. प्रतीयन्त ३. देवराट् क ४, दशलक्षणिको धर्मो खः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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