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* प्रथमः सर्गः * नाक '-निर्वाण-करिं महावीरं जगद्धितम् । वर्तमान गुणः पूर्ण नौमि प्रारब्ध सिद्धये ॥१५॥ शेषान् सर्वान् जिप्तारातीन् धर्म साम्राज्यनायकान् । अनन्तगुणवाराशीन् जिनान् स्तोमि तव्ये ।।१६।। अष्टकोणनिमुक्तान गुणाष्टकधिपता : लोसायशिखरावासान् ध्येयान् विश्वमुनीश्वरैः ।१७। कृत्स्नचिन्तातिगान' सिद्धाननन्तसुखसागरान् । स्मरामि हृदये नित्यं निरौपम्यान् शिवाप्तये ।।१८।। प्राचारं पञ्चधा मुक्त्यै ये चरन्ति स्वयं सदा ! आचारयन्ति शिष्याणां सर्वानुग्रहबुद्धयः ।।१६।। सूरयो विश्वतत्त्वज्ञा जिनधर्मप्रभावकाः । तेषां पादाम्बुजान् वन्दे पञ्चाधारविशुद्धये ।।२०।। पठन्त्येकादशाङ्गानि सर्वपूर्वयुतान्यपि ।ये महामतयः सिद्धच यतीनां पाठयन्ति च ।।२१।। स्वान्योपकारिणो लोके व पाध्यायमुनीशिनः । पादाब्जान शिरसा तेषां नमस्कुर्वे चिदाप्तये ।२२। साधयन्ति त्रिरोग ये दुष्करं भीरभीतिदम् । ये कालत्रयजं मुक्त्यै साधवः सिद्धिसाधकाः ॥२३॥ हैं, महावीर हैं-महान् विशिष्ट मोक्ष लक्ष्मी के दाता हैं प्रथया कर्मरूपी शत्रुनों को नष्ट करने में प्रद्वितीय वीर हैं तथा गुणों से परिपूर्ण हैं ऐसे बर्द्धमान स्वामी की प्रारब्ध कार्य की सिद्धि के लिये स्तुति करता हूँ ॥१४-१५।। जिन्होंने कर्म रूपी शत्रुओं को जीत लिया है, जो धर्म रूपी साम्राज्य के नायक हैं, और अनन्त गुरणों के सागर हैं ऐसे शेष समस्त तीर्थंकरों को मैं उनकी वृद्धि के लिये उनके समान वृद्धि को प्राप्त करने के लिये स्तुति करता हूँ ॥१६।। जो प्रष्ट कर्म और प्रौदारिक प्रावि शरीरों से रहित हैं, अनन्तज्ञान प्रावि पाठ मुरणों से विभूषित हैं, लोक के अग्रिम शिखर पर जिनका निवास है, जो समस्त मुनिराजों के द्वारा ध्यान करने योग्य हैं, समस्त चिन्तामों से रहित हैं, अनन्त सुख के सागर हैं तथा अनुपम हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठियों का मैं मोक्ष की प्राप्ति के लिये निरन्तर हृदय में स्मरण करता हूँ ॥१७-१८।। जो मुक्ति की प्राप्ति के लिए पांच प्रकार के प्राचार का स्वयं सदा आचरण करते हैं तथा शिष्यों को प्राचरण कराते हैं, जिनकी बुद्धि सब जीवों के उपकार में लीन रहती है-जो सब का भला चाहते हैं, जो समस्त तत्त्वों के ज्ञाता हैं तथा जिनपर्म को प्रभावना करने वाले हैं ऐसे प्राचार्य परमेष्ठी हैं, मैं पांच प्रकार के प्राचार को शुद्धि के लिये उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ ।।१६-२०॥ जो महा बुद्धिमान, समस्त पूर्वो से सहित ग्यारह अङ्गों को मुक्ति-प्राप्ति के लिए स्वयं पढ़ते हैं और दूसरों को पढ़ाते हैं तथा जो लोक में निज और पर के उपकार में तत्पर रहते हैं ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी हैं, चैतन्य स्वरूप की प्राप्ति के लिये मैं उनके चरण कमलों को मस्तक झुका कर नमस्कार करता है ॥२१-२२।। जो भीरु मनुष्यों को भय प्रदान करने वाले, प्रत्यन्त कठिम, तीनकाल सम्बन्धी जन्म जरा और मृत्यु रूपी तीनों रोगों की मुक्ति-प्राप्ति
१. स्वर्ग-मोक्ष-कार २. निखिल चित्तातीतान् ३ दर्शन-ज्ञान चारित्र-तपो-वीयांचारभेदेन पञ्चधा ४, जन्मबसायच्याविरोग।