SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ naw . . .. .... १८८ ] श्री पार्श्वनाथ चरित. दानपूजार्जवाद्यश्च किञ्चित्पुण्यं विधाय ना । भजत्येको नृयोनौ च श्रियं राज्यादिगोचराम् ।४। एको दीक्षा समादाय हत्वा कर्माणि शुद्धधीः । तपोरत्नत्रयादयो निर्वार गच्छेद्गुरणाम्बुधिम् ।४२ एको रोगादिभिस्तो मृत्वा कष्टेन पापभाक् । वायुवत्संभ्रमेद्विश्वं स्वनसाऽशर्मपूरितः ॥४३।। इत्येकत्वं परिशाय जन्ममृत्य्वोच' सर्वथा । त्यक्त्वाङ्गादिपरद्रव्यं भजेकत्वं बुधात्मनः ।।४४।। शार्दूलविक्रीडितम् एको दुःखमनारतं च कुगतो पापोदयात्प्राणभृ--- देकः सौख्यमपारमद्भ ततरं स्वर्गऽत्र भुङ्क्ते शुभात् । एको मोक्षमनन्तशमंजलधि कर्मक्षय बुद्धवेत्याशु बुधा भजध्वमनिश स्वास्मान मेक विधेः ॥४५।। एकत्वानुप्रेक्षा देहायत्र भवेदन्यो जडादात्मा हि निद्वपुः । स्वकीयं तत्र फिञ्चान्यस्कुटुम्बस्त्रीगृहादिकम् ।४६ मन्या माता पिताप्यन्यो' भार्याः पुत्राश्च बान्धवाः । अन्ये च स्वजना नूनं जायन्ते सर्वजातिषु ।।४।। होता है ॥४०॥ दान पूजा तथा प्रार्जय-सरलता प्रादि के द्वारा किञ्चित पुण्य का उपा न कर यह मनुष्य अकेला ही मनुष्ययोनि में राज्यादि विषयक लक्ष्मी को प्राप्त होता है॥४१॥ अकेला ही दीक्षा लेकर तथा कर्मों को नष्ट कर शुद्ध बुद्धि और सप एवं रत्नत्रय से युक्त होता हुमा गुणों के सागरस्वरूप निर्धारण को प्राप्त होता है ।।४२॥ पापी जीव अकेला ही रोगादि से ग्रस्त होता हुमा कष्ट से मरता है और अपने पाप के फलस्वरूप दुःख से युक्त होता हुमा वायु के समान संसार में भ्रमण करता है ॥४३।। इस प्रकार जन्म और मरण में यह जीव सब प्रकार से अकेला ही रहता है यह जानकर हे ज्ञानीजन हो ! शरीरादि परद्रव्य को छोड़कर प्रात्मा के एकत्व की प्राराधना करो अर्थात् प्रात्मा अकेला ही है ऐसी हर प्रतीति करो ॥४४।। पाप के उदय से यह प्राणी अकेला ही कुगति में निरमार दुःख भोगता है मौर पुण्योदय से स्वर्ग में अपार तथा प्राश्चर्यकारक सुख भोगता है। तया कमों के क्षय से अकेला ही अनन्त सुख के सागरस्वरूप मोक्ष को प्राप्त होता है ऐसा जान कर अहो विद्वज्जन हो ! शीध्र ही निरन्तर एक अपनो प्रात्मा को कम से पृथक उपासना करो ॥४५॥ ( इस प्रकार एकत्व अनुप्रेक्षा का चिन्तबन किया ) जहां चिम्मूति प्रात्मा जड शरीर से अन्य है यहां कुटुम्ब, स्त्री तथा घर प्रादिक अन्य पदार्थ अपने कैसे हो सकते हैं ? ॥४६॥ निश्चय से सभी योनियों में माता अन्य है, १. जम्ममृत्यो २०४० ग. २. पितापल्यो खः । - - -
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy