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________________ * पञ्चदश सर्ग [ १८६ अन्नपानादिताम्बूल पोषिसं वस्त्रभूषणैः । यदङ्ग ं तन्न यात्युच्चरङ्गिना सह किं परः ||४८ || तिष्ठन्ति फलिते चात्र भुक्त्यर्थं पक्षिणो यथा । फलापाये प्रयान्त्येव तथा च स्वजना जनाः ॥४६ कर्मकार्येभ्यो योगेभ्यः कर्मभ्यः परमार्थत: । मूर्तभ्यश्च पृथग्भूत प्रात्मा 'ज्ञानमयोऽभवेत् ॥५०॥ गृहस्त्रीधनपुत्रादीन्मे मे कुर्वन्ति ये शठाः । ते तांस्त्यक्त्वा भ्रमन्यत्र दुःखिनो हि चतुर्गतौ ५१ यत्किञ्चिद्यते वस्तु मूर्त सर्व विनश्वरम् । कर्मजं तत्पृथग्भूतं विज्ञेयं स्वात्मनो ध्रुवम् ।। ५२ ।। इति मत्वाखिलं वस्तु सर्वं त्वत्कर्मजं बुधाः । स्वकीयं परमात्मानं सेवध्वं मुक्तये सदा ॥ ५३ ॥ शार्दूलविम्ि अन्यत्कायम सारवस्तुनिचितं सर्वं कुटुम्बं स्वतो राज्यं केन्द्रियश पूर्वविधिज रामादिदोष व्रजः । ज्ञात्ती चिदेकमूर्तिमसमं भिन्नं स्वदेहादित --- श्वात्मानं शिवसिद्धयेऽतिनिपुणा यत्नाद्भजध्वं हृदि || ५४ || अन्यत्वानुप्रेक्षा पिता श्रन्य है, स्त्री अन्य है, पुत्र अन्य है, बान्धव अन्य हैं और कुटुम्बी जन अन्य हैं ||४७ || जो शरीर अश, पान, ताम्बूल प्रादि तथा वस्त्राभूषरणों से पोषित किया जाता है वह भी अब जीव के साथ ऊपर नहीं जाता तब दूसरा पदार्थ साथ कैसे जा सकता है ? ||४८ || जिस प्रकार पक्षी खाने के लिये फले हुए श्राम्रवृक्ष पर ठहरते हैं और फलों का प्रभाव होने पर नियम से चले जाते हैं उसी प्रकार कुटुम्बीजन भोगोपभोग के लिये सम्पन्न दशा में साथ रहते हैं और सम्पत्ति के नष्ट हो जाने पर प्रत्यत्र चले जाते हैं ॥ ४६ ॥ ज्ञान से तन्मय मा कर्मों के कार्यस्वरूप योगों से तथा मूर्तिक कर्मों से वास्तव में पृथक् है । ५०१ जो सूर्ख घर स्त्री धन तथा पुत्रादिक को मेरे मेरे करते हैं वे उन्हें छोड़कर दुःखी होते हुए चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमरण करते हैं ।। ५१|| कर्म से उत्पन्न होने वाली जो कुछ मूर्तिक निश्चित ही पृथग्भूत है वस्तु दिखाई देती है वह सब विनश्वर है तथा अपने श्रात्मा ऐसा जानना चाहिये ।। ५२ ।। इस प्रकार अपने कर्म से उत्पन्न हुई समस्त वस्तुओं को पृथक जानकर हे विद्वज्जन हो ! मुक्ति प्राप्ति के लिये सदा स्वकीय परमात्मा की सेवा करो ।। ५३ ।। निःसार वस्तुओं से भरा हुआ शरीर समस्त कुटुम्ब, राज्य, पूर्व कर्म से उत्पन्न हुआ इन्द्रिय सुख तथा रागादि दोषों का समूह अपने ग्रापसे अन्य हैं-पृथक् हैं ऐसा जानकर हे चतुरजन हो ! इस जगत् में एक चैतन्य मूर्ति, अनुपम, तथा अपने शरीरादि से भिन्न प्रात्मा का मोक्ष सिद्धि के लिये हृदय में यत्नपूर्वक भजन करो १५४ ॥ ( इस प्रकार अन्यत्वानुप्रेक्षा का चित्तवन किया ) १. ज्ञानमयोऽभवत् ब ० 1
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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