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________________ १६० ] * श्री पार्श्वनाथ चरित * कृत्स्नदुःखाकरीभूते सप्तधातुमयेऽशुचौ । शुक्रशोणित बीजेऽझे विवेकी को रति व्यधात् ॥५५॥ क्षुत्त लक्कोपमानाग्नयो ज्वलन्त्यनिशं सप्ताम् । यत्र कायफुटीरेऽस्मिन्कि वासस्तत्र शस्यते ।।५६।। अमेध्यघातुसंपूर्ण जन्तुकोटिशनाकुलम् । यद्यमास्ये स्थितं कायं तत्सतां रतये कुतः ।।५७।। वस्त्रभूषानपानाद्यः शरीरं पोषन्ति ये । प्रत्र तेषां रुजो दद्यादमुत्र दुर्गति च तत् ।।१८।। तर्वपुः सफलं चके योक्षाय कथितम् । विरज्य कामभोगेषु तपोवृत्तपरीष हैः ।। ५६।। कलेवरे सारेऽस्मिन्सार कार्य तपोऽनघम् । ध्यानाध्ययनसद्योगवृत्तवानजपादिकम् ॥६०।। इति विज्ञाय हत्वाले ममलं दुरिताकरम् । पवित्रं मूक्तिसाम्राज्यं साधयचं विदो द्रुतम् । ६१। मालिनी प्रशुचिसकलपूर्ण धातुविष्टादिधाम दुरितनिखिलबीजं कृत्स्नदुःखैकहेतुम् । वपुरपगतसारं संविदित्वात्र दक्षा: प्रभजत शिवकामा यत्नतो मोक्षप्तारम् । ६२।। अशुचित्वानुप्रेक्षा जो समस्त दुःखों को खानस्वरूप है, सप्तधातुनों से तन्मय है, अपवित्र है, रज और वीर्य से उत्पन्न है तथा ज्ञान रहित है, ऐसे शरीर में कौन विवेकी पुरुष प्रीति करेगा ? अर्थात कोई नहीं ॥५५॥ सत्पुरुषों के जिस शरीररूप झोपड़े में क्षुधा तृषा रोग क्रोध और मानरूपी अग्नियाँ निरन्तर जलती रहती हैं उसमें निवास करना क्या प्रशंसनीय है ? अर्थात नहीं ॥५६॥ जो अपवित्र धातुओं से भरा हुआ है, जीवों की सैकड़ों कोटियों से व्याप्त है और यमराज के मुख में स्थित है बह शरीर सत्पुरुषों को प्रीति के लिये कैसे हो सकता है ? ।।५७।। जो मनुष्य वस्त्र प्राभूषण तथा अन्न पान आदि के द्वारा शरीर का पोषण करते हैं उन्हें वह शरीर इस भव में रोग देता है और परभव में दुर्गति प्रदान करता है ॥५८। उन्हीं पुरुषों ने शरीर को सफल किया है जिन्होंने काम भोगों में विरक्त होकर तप चारित्र और परिषहों के द्वारा मोक्ष प्राप्ति के लिये उसे पीडित किया है ॥५६॥ इस प्रसार शरीर में निर्दोष तप तथा ध्यान अध्ययन प्रशस्त योग चारित्र दान और अप प्राविक सारभूत कार्य है ।।६०॥ ऐसा जानकर हे ज्ञानी जन हो ! शरीर में पापों को खानभूत ममता को छोड़ो और शीघ्र ही पवित्र मुक्ति के साम्राज्य की साधना करो ॥६१।। यह शरीर समस्त अपवित्र पदार्थों से भरा हुआ है, धातु तथा विष्ठा प्रादि का स्थान है, समस्त पापों का बीज है, सब दुःखों का प्रमुख कारण है और सार रहित है ऐसा जान कर हे मोक्षाभिलाषी चतुर जन हो ! इस जगत् में यत्नपूर्वक मोक्षरूप सार पदार्थ की आराधना करो ॥६२॥ ( इस प्रकार अशुचित्वानुप्रेक्षा का चिन्तयन किया ) १.मोक्षपारम् ख. ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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