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________________ ! सच्छिद्रं च यथा पोते मज्जत्यब्धी जलासवः । तथा कर्मासवर्जीवो विषयान्धो भवार्णवे ।।६३॥ मिथ्यात्वं पञ्चधा द्वादशधा विरतयोऽशुभाः । 'त्रिपञ्चैव प्रमादा हि कषायाः पञ्चविंशतिः।६।। योगाः पञ्चदशाप्येते प्रत्ययाः२ शत्रवः पराः । त्याज्या मुमुभूभिर्यत्नात्कुकर्मास्त्रबहेतवः ॥६५॥ मनोवाक्काययोशा सर्व संजायतेतराम् । विधा क्रम तत: कार्यों यत्नस्तद्रोधने बुधः ।। ६६ ।। संचिनोत्यशुभं कर्म रागद्वेषमलीमसम् । मन: "साम्यादिकापन्न शुभं कर्म नृणां सदा ।६७। मृषादिदूषितं वाक्यं चास्ते पापमद्भ तम् । सत्या हिता मिता वारगी सत्पुण्यं च सुखाकरम् ६८ कायोत्सर्गादिमापन्न वपुः सूते महच्छुभम् । दुरितं दुःखसंतानं विक्रियाद्यन्वितं च तत् ।।६।। रुद्धा योगाश्च येर्दानाध्ययनकर्मभिः । तैश्चात्र प्रत्ययाः कर्मास्रवाः सर्वेऽशुभप्रदाः ।।७।। इति मत्वासवान्योगान् निरुन्धध्वं बुधा द्रुतम् । सर्वशर्मशिवाद्याप्त्यै यत्नाद्ध्यानादिकर्मभिः १७१। ___ शार्दूलविक्रीडितम् सर्मिपरम्परापरणपरं चौरं सुमुक्तिश्रियः संसाराम्बुधिमज्जकं मुनिवरयानासिना नाशितम् । जिस प्रकार छिद्र सहित जहाज जल के आने से समुद्र में डूबता है उसी प्रकार विषयान्ध जीव कर्मों के प्रास्रव से संसाररूपी सागर में डूबता है ।।६३॥ पांच प्रकार का मिथ्यात्व, बारह प्रकार की अशुभ प्रविरतियां, पन्द्रह प्रमाद, पच्चीस कषाय और पन्द्रह योग ये प्रत्यय-बन्ध के कारण परम शत्रु हैं तथा निन्ध फर्मास्त्रव के हेतु हैं । मुमुक्षु जनों को यत्नपूर्वक इनका स्याग करना चाहिये ॥६४-६५।। मन वचन काय रूप योगों के द्वारा पुण्य पापरूप द्विविध कर्म का अत्यधिक मात्रय होता है इसलिये जानीजनों को उनके रोकने में यत्न करना चाहिये ॥६६॥ मनुष्यों का राग द्वष से मलिन मन अशुभ कर्म का संचय करता है और साम्यभाव प्रादि को प्राप्त हुमा मन सदा शुभ कर्म का संचय करता है ॥६७॥ असत्य प्रादि मे दूषित वचन, आश्चर्यकारक पाप को उत्पन्न करता है और सत्य मित तथा हितकारी वारणी सुख की खानस्वरूप उत्तम पुण्य को उत्पन्न करती है ।।६।। कायोत्सर्ग प्रादि को प्राप्त हुमा शरीर बहुतभारी शुभ-पुण्य कर्म को उत्पन्न करता है और विकार प्रादि से सहित शरीर पाप तथा दुःखों की सन्तति को जन्म देता है ।।६६।। जिन चतुर मनुष्यों ने ध्यान तथा अध्ययन कार्य के द्वारा योगों को रोका है उन्हीं ने इस जगत में प्रकल्याण को देने वाले समस्त कर्मास्त्रध रोके हैं ॥७०॥ ऐसा जानकर हे विद्वयन हो ! माप लोग समस्त शिव सुख की प्राप्ति के लिये ध्यान आदि कार्यों के द्वारा शीघ्र ही यत्नपूर्वक प्रास्त्र व स्वरूप योगों को निरुद्ध करो ॥७१॥ जो समस्त दुःखसन्तति के देने १. पञ्चदशा २. बन्धकारणानि ३. हेतवे ख: घ० ४. शामादि स्व. ध ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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