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________________ पञ्चम सर्ग. पञ्चमः सर्गः विश्वविघ्नारिहन्तारं वातारं भव्यदेहिनाम् । अनन्त सुखदातारं प्रोपाचे संस्तुवे गुणः ।।१।। पकदा स चके शो भुक्रवा भोगानतृप्नुवन् । मुक्तिस्त्रीमुखतो भोक्तु प्रायो भन्यजनेयम: ॥२॥ क्षेमकराख्य---भट्टारक-समीपमगाद् द्रुतम् । सैन्येन सह प्राय विस्वक्षेमविषायिने' ॥९॥ त्रिः परीत्य मुनीन्द्रं तं त्रिजगन्नाथन्दितम् । मू| नत्वा प्रपूज्योच्चदिम्यः पूजन वस्तुभिः ।।४।। स्तुरवा गुणगणः सारेवतादिजनित मुंदा । तपादान्तं नृपः सोऽस्थात्मदमश्रवणाय ॥ धर्मवृक्ष्याभिनन्धोच्चै मुनीन्द्रोऽनुग्रहाय सः। प्रवोचममत्ययं निरव त प्रति ॥६॥ राजन् धर्मोऽत्र कर्तव्यो नैकशर्माकरः परः । हितो मुमुमुभिनित्यं षिवृसतपोयमः ।।७।। विधा स विहे धर्मों देशसर्वप्रभेदतः । एकदेशो गृहस्थानां संपूर्णः स मुनीहिनाम् ।।६।। पञ्चम सर्ग समस्त विघ्नरूपी शत्रुनों को नष्ट करने वाले, भव्यजीवों के रक्षक तथा प्रनम्त सुखों के दाता श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं उनके गुणों के कारण सम्यक् स्तुति करता हूँ ॥१॥ प्रभानन्तर एक समय भोगों को भोगकर तृप्त नहीं होने वाला वह चक्रवती भव्य जनों के द्वारा चारित्र से प्रार्थनीय मुक्तिरूपी स्त्री का उपभोग करने के लिये उद्यत हुमा ॥२॥ यह शीघ्र ही समस्त संसार का कल्याण करने वाले धर्म के लिये सेना के साथ श्री अमंकर भट्टारक के समीप गया ॥३॥ तीन जगत् के स्वामियों के द्वारा वन्धित उन मुनिराज की तीन प्रदक्षिणाएं देकर उसने शिर से प्रणाम किया, उत्कृष्ट तथा सुन्दर पूजन को सामग्री से पूजा की, तथा चारित्र मादि से उत्पन्न सारभूत गुणों के समूह से हर्षपूर्वक स्तुति को । पश्चात् वह राजा सद्धर्म को सुनने के लिये उनके चरणों के निकट बंट गया ।।४-५॥ मुनिराज ने धर्मवृद्धि के द्वारा अभिनन्दन कर बहुत भारी अनुग्रह करने के लिए राजा के प्रति अत्यन्त निर्दोष धर्म का निरूपण किया ॥६॥ उन्होंने कहा कि हे राजन् ! मोक्ष के अभिलाको जनों को निरन्तर दर्शन जान चारित्र और तप के द्वारा धर्म करना चाहिये, क्योंकि वह धर्म हो अनेक सुखों की उत्कृष्ट खान है ॥७॥ बह धर्म एक देश और सर्व देश की अपेक्षा दो प्रकार का है। एकवेश धर्म गृहस्थों के और सर्वदेश धर्म मुनियों के १. चारित्र. २ विश्वक्षेमविवायिनम क. स्व. ३. निदोष पोर शमं नाकं . हु ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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