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________________ *श्री पार्श्वनाथ चरित साध्यः सोऽणुवतधर्मो गुणशिक्षायतस्तथा । दानपूजोपवासाचं. प्रत्यहं गृहमेधिभिः ।। महान महाव्रतंगुप्तित्रयः समितिपञ्चकः । क्रियते स सपोयोगानाध्ययनकर्मभिः ॥१०॥ गुण लाभिधः सर्वैः परीषहजयोद्यतः । त्यक्तरागैश्च मोहन मुनीन्द्र नापरः क्वचित् ॥११॥ गेहिधर्मेण गार्हस्थ्यः प्राप्यते सुखमुल्वणम् । यावत् षोडशक" नाकं देवोनिकरसंभवम् ।।१२।। मुक्तिरामा समादरी स्वयमेष तपस्विनाम् । आलिङ्गनं स्वभार्यव यतिधर्मप्रभावतः ।।१३।। वेष्टनोष्टनं कुर्याद् गृही स्वं कर्मणानिशम् । सामायिकतपोहिंसाधर्मोहान्वितमानसः ॥१४|| यतो दध्यात् क्वचिद् गेही पुण्यं दान रघक्षयम् । तपोभिस्तद्वयं सामायिकसावचिन्तनः ॥१५॥ क्वचिच्चाधाययुग्मं श्रीचैत्योद्धारादिकारण: । ततो न तद्भवे मोक्षोऽस्त्याबाद गृहमेधिनाम् ।।१६।। बहुइन्द्वातचित्तानां दुराशाग्रसितात्मनाम ! स्त्रीकटाक्षेषु विद्धानां हिसाघारम्भवतिनाम् ॥१७॥ होता है ।।८।। गृहस्थों को वह धर्म अणुव्रत, गुणवत, शिक्षाप्रत तथा दान पूजा और उपबास प्रादि के द्वारा प्रतिदिन करना चाहिये ॥६॥ ____ महान् सर्वदेश धर्म, पांच महाव्रत, तीन गुप्ति, पांच समिति, बारह तप, ध्यान अध्ययन रूप कार्य तथा प्रट्ठाईस मूलगुरखों के द्वारा किया जाता है। यह सर्वदेश धर्म, परोषहों के जीतने में उथत, वीतराग तथा मोह को नष्ट करने वाले मुनिराजों के द्वारा किया जाता है अन्य लोगों के द्वारा कहीं नहीं किया जाता ॥१०-११।। गृहिधर्म-एक देश धर्म से गृहस्थों द्वारा सोलहवें स्वर्ग तक देवियों के समूह से उत्पन्न होने वाला अत्यधिक सुख प्राप्त किया जाता है। भावार्थ-गृहस्थ धर्म को धारण करने वाला मनुष्य सोलहवें स्वर्ग तक ही उत्पन्न हो सकता है उसके प्रागे नहीं ।।१२।। और मुनिधर्म के प्रभाव से मुक्ति रूपी स्त्री स्वयं प्राफर प्रपनी स्त्री के समान तपस्वी जनों को प्रालिङ्गन देती है। भावार्थ--मुनिधर्म के प्रभाव से यह जीव मोक्ष को भी प्राप्त होता है फिर स्वर्ग की तो बात ही क्या है ? ॥१३॥ जिसका निस मोह से युक्त है ऐसा गृहस्थ सामायिक, तप तथा हिंसा प्रादि के द्वारा अपने आपको निरन्तर कर्मों से वेष्टित और उज्वेष्टित करता रहता है ।।१४।। क्योंकि कहीं तो गृहस्थ दान के द्वारा पाप का क्षय करने वाला पुण्य करता है, कहीं तप, सामायिक और सावध फार्यों के चिन्तन से क्रमशः पुण्य पाप दोनों करता है ।।१५।। और कहीं चत्यालयादि के निर्मापण आदि कार्यों से एक माथ पाप-पुण्य दोनों करता है । इसलिये गृहस्थों को प्रात्रय होते रहने से उसी भव में मोक्ष प्राप्त नहीं होता है ॥१६॥ जिनका चित्त नाना प्रकार के द्वन्द्वों से दुखी हो रहा है, जिनको प्रात्मा दुष्ट प्राशा से ग्रसित है, जो स्त्रियों के कटाक्ष रूपो वारणों से विद्ध हैं, हिंसा प्रावि के प्रारम्भों में प्रवृत्ति करते हैं, जिन्होंने इन्द्रियरूपी १. चौकटाक्ष बाणा विधाना।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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