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__* द्वितीय सर्ग *
[ १९ गृहारम्भोऽखिलो हेय: समस्तैनी निबम्धनम् । लोभं हत्वा विमा वस्त्रं परिग्रह-विवर्जनम् ।।३।। सावधानुमतिः कृत्स्ना न कार्या जातु सिद्धये । हालाहलमिवोद्दिष्टाहारं ग्राह्य न पापदम् ।।३७।। एता यः प्रतिमा धीमानेकादश प्रपालयेत् । प्राप्य षोडशक नाक' क्रमायाति शिवालयम् ।।३।। मुनेक्यिामृतं पीत्वा हत्वा दुःखाघदुविषम् 1 जग्राह काललब्ध्याशु त्रिशुद्धपानन्दनिर्भरम् ॥३६॥ निखिलानि व्रतान्येय योग्यामि सहनाम् . उपाध-गाला नत्वा तत्पादपङ्कजम् ॥४.।। तदा प्रभृति नागेन्द्रो भग्नशाखाः परैगंजः । तृणान्यत्त्यतिशुष्काणि पाण्यघभयात्सदा ।।४।। उपलास्फालनाक्षेपद्विप-संघातट्टितम् ।पारणे स निराहारस्तोयं पिवति शुद्धधीः ।।४२।। षष्दाष्टमादिना नित्यं करोत्येवानघं तपः । प्राक्तनाशुभ-हान्यं स संवेगान्वित्त-मानसः ।।४३।। छठवीं रात्रि मोजन त्याग प्रतिमा है। पश्चात् नौ कोटियों----मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदमा से श्रेष्ठ तथा सुखदेव को खान स्वरूप ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिये। यह सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा है ॥ ३५ ॥ पाचाद समस्त पापों का कारण सब प्रकार का गृह सम्बन्धी प्रारम्भ छोड़ना चाहिये । यह अष्टम प्रारम्भ त्याग प्रतिमा है । फिर लोभ को नष्ट कर उपयोगी वस्त्र के बिना समस्त परिग्रह का त्याग करना चाहिये । यह नोषों परिग्रहत्याग प्रतिमा है ॥३६।। तदनन्तर मुक्ति प्राप्त करने के लिये सब सकार के सावध सपाप कार्यों की अनुमति नहीं करना चाहिये । यह बशवों प्रनुमति त्याग प्रतिमा है, और पश्चात् हालाहल विष के समान पाप को देने वाला उद्दिष्ट आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये । यह उद्दिष्ट त्याग नामक ग्यारहवीं प्रतिमा है ॥३७॥ जो बुद्धिमान मनुष्य इन ग्यारह प्रतिमानों का पालन करता है वह सोलहवें स्वर्ग तक जाकर क्रम से मोक्ष प्राप्त होता है ॥३॥
मुनिराज के वचन रूपी अमृत को पीकर तथा दुःखदायक पापरूपी दुष्ट विष को नष्टकर उस हाथी ने काल लब्धि से शोन ही आनन्द से परिपूर्ण हो मन वचन काय की शुद्धि पूर्वक अपने योग्य श्रावकों के समस्त व्रत ग्रहण किये। उसने यह व्रत धर्मबुद्धि से पापों का विधात करने के लिये मुनिराज के चरण कमलों को नमस्कार कर ग्रहण किये थे ।।३६-४०॥ उस समय से वह गजराज पाप के भय से, दूसरे हाथियों के द्वारा तोड़ो हुई वृक्ष की शाखानों तथा सूखे तृण और पत्तों को खाने लगा ॥४१।। शुद्ध बुद्धि से युक्त वह हाथी उपवास के दिन निराहार रहता और पारणा के दिन भदभदा से पड़े हुए तथा हाथियों के संघात से घट्टित प्रामुक जल को पीता था।।४२।। जिसका चित्त संसार सम्बन्धी भय से युक्त है ऐसा वह हाथी पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों की निर्जरा के लिये वेला तेला आदि
१ समस्तपापकारता भूतम् २. सपाएकार्यानुमतिः
३. स्वर्ग ।