SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० । * श्री पार्श्वनाथ चरित * जातु वाधां विधत्ते नो द्वीन्द्रियाखिलाङ्गिनाम् । कृत्स्नसत्त्वदयालीन एनोभीतो' व्रताप्तये ।।४४।। तृणादीनि परेषां न क्वचिद् गृह्णाति धर्मभाक् । त्रिशुद्धया पालयत्वेव ब्रह्मयं स्वसिद्धये ।।४।। स्ववीर्य प्रकटीकृत्य चिरं कुर्वस्तपो महत् । संवेगेनाभवद्धस्ती क्षीणदेहपराक्रमः ॥४६॥ कदाचित्पातुमायातो वेगवत्या लदै जलम् । क्षीरगातिान:शक्ताऽपतज्जीवदयापरः ।।४७।। पङ्क क्षिप्तः समुत्थातु विहितेहोऽप्यशक्तवान् । संन्यासमाददे धीमांस्तत्क्षरगं सिद्धिलब्धये ।।४।। ध्यायन हृदि जिनाधीशं तपो धर्म च सद्गुरून् । पाराधना: स्वधैर्येण धर्मध्यान-परायणः ।। ४६।। मृत्वाथ कमठः पापी कुकुटाहिर्बभूवः सः । ऋ रोऽतिदारुणः पापादने तत्र भयंकरः ।।५।। व्रजता तेन सर्पण पूर्वरोदयात्तदा । कोपातुरेण दष्टोऽसौ गजो धर्मपरायण: ॥५१:। तद्विषोत्पन्नदाहेन त्यक्त्वा प्राणान समाधिना ।महत्या क्षमया धर्मव्रतसंन्यासपातः ।।५२|| - -.. --. के द्वारा निरन्तर निर्दोष तप करता था ॥४३॥ो समस्त जीवों की क्या में लीन रहता था तथा पाप से भयभीत था ऐसा वह हाथी व्रत की प्राप्ति के लिये कभी भी द्वीन्द्रियादि समस्त जीवों को बाधा नहीं करता था ।।४४॥ धर्म को धारण करने वाला वह हाथी कहीं भी दूसरों के तृण आदि को ग्रहण नहीं करता था और प्रात्मसिद्धि के लिये त्रिशुद्धि पूर्वक नियम से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता था ॥४५॥ संवेग-संसार भ्रमण के भय से अपने वीर्य को प्रकट कर वह हाथी चिरकाल तक महान तप करता रहा, जिससे उसके शरीर का पराक्रम क्षीण हो गया ॥४६॥ ___ जिसका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया है तथा जो अत्यन्त शक्तिहीन हो चुका है ऐसा जीव दया में तत्पर रहने वाला वह हाथी किसी समय वेगवती नदी के हर में पानी पीने के लिये प्राया और वहां गिर पड़ा ॥ ४७ ॥ वहां की कीचड़ में बह ऐसा गिरा कि प्रयत्न करने पर भी उठने के लिये समर्थ नहीं हो सका। अन्त में उस बुद्धिमान ने सिद्धि प्राप्ति के लिये उसी क्षण संन्यास ले लिया अर्थात् जीवन पर्यन्त के लिये पाहार पानी का त्याग कर दिया ॥४८॥ वह हृदय में जिनेन्द्र देव, तपश्चरण, धर्म और सद्गुरुत्रों का ध्यान करता हुआ चार आराधनाओं की आराधना करने लगा तथा अपने धैर्य से धर्मध्यान में तत्पर हो गया ||४६॥ तदनन्तर पापी कमठ अपने पाप से मर कर उसी वन में क्रूर परिणामी, अत्यन्त कठोर और भयकर कुर्कुट सर्प हुमा ।।५०।। उस समय वह सर्प वहीं से जा रहा था। पूर्व वैर के उवय से क्रोषातुर उस सर्प ने धHध्यान में तत्पर उस हाथी को डस लिया ।।५१॥ उसके विष से उत्पन्न दाह के कारण उसने समाधिपूर्वक प्रारण छोड़े और बहुत भारी क्षमा, १. पापभीत: २. विहितोद्यापि ३. कुकुंटसर्पः, उयमशील। सर्पविशेषः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy