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________________ * श्री पाश्र्वनाथ चरित # श्रुत्वा तद्वाक्यमेवासी धर्मकर्मनिबन्धनम् । सद्धर्म कांश्रयात्राघात्तस्पादाब्जे निजं शिरः ||२७|| तस्रो जगौ मुनिर्वाचं धर्मसद्भावसूचिकाम् । गजाधीश शृणु त्वं ते वक्ष्ये सामारिणां वृषम् ||२८|| शङ्कादिवशेषनिर्मुक्तं गुणाष्टक - विभूषितम् । दर्शनं प्रथमं धार्य सोपानं मुक्तिधामनि ॥ २६ ॥ श्रद्धानं सप्ततरवाना तोर्थशागमयोगिनाम् । क्रियते यत्र निःसन्देह तत्सम्यक्त्वमुच्यते ||३०|| महंतो नापो देवो दयाभावात्र सद्वृषः । निन्यान्न गुरुज्येष्ठ एतत्सम्यक्त्व कारणम् ॥१३१६६ मच मासं मधु त्याज्यं सहोदुम्बरपञ्चकैः । दृग्गुणैः व्यसनंः सार्धं सदाद्य-प्रतिमाप्तये ।। ३२ । अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिघासारं गुरुव्रतम् । शिक्षावतानि चत्वारि हीति द्वादश-सवताः ॥३३॥ सामायिक विधातव्यं काले काले वृषाकरम् । कर्मारण्यानलः कार्यः प्रोषधः सर्वपर्वसु ॥३४॥ वस्तुस्त्या गचतुराहार--- वर्जनम् | रात्री च नवधा सारं ब्रह्मचर्यं सुखाकरम् ||३५|| १५ ] धर्म कर्म के कारणभूत मुनिराज के उन वचनों को सुनकर हाथी ने समीचीन धर्म की इच्छा से अपना मस्तक उनके चरणकमलों पर रख दिया ॥ २७॥ तदनन्तर मुनिराज ने धर्म के सद्भाव को सूचित करने वाले वचन कहे हे गजराज ! तू सुन, मैं तुझे गृहस्थों का धर्म करूँगा ।। २८ ।। सबसे पहले शङ्का प्रादि प्राठ दोषों से रहित तथा संवेग श्रादि आठ गुणों से सुशोभित, मोक्षमहल को पहली सीढी के समान सम्यग्दर्शन धारण करना चाहिये ||२६|| सात तत्त्वों तथा प्राप्त, श्रागम और निर्ग्रन्थ गुरुयों का जिसमें निःसन्देह श्रद्धा किया जाता है वह सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन कहलाता है ।। ३० ।। प्रर्हन्त से बढ़कर दूसरा वेव नहीं है, क्याभाव से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं है, और निर्ग्रन्थ से बढ़कर श्रेष्ठ गुरु नहीं है । यह तीनों ही सम्यक्त्व के कारण हैं ।। ३१ ।। गृहस्थ धर्म की ग्यारह प्रतिमाएँ हैं उनमें से प्रथम प्रतिमा की प्राप्ति हेतु जीवन पर्यन्त के लिये सात व्यसन तथा पांच उदुम्बर फलों के साथ मद्य, मांस और मधु का त्याग करना चाहिये तथा मूलगुणों के साथ सम्यग्दर्शन को धारण करना चाहिये। यह पहली दर्शन प्रतिमा है ||३२|| तदनन्तर पांच व्रत, तीन प्रकार के श्रेष्ठ गुरणव्रत और चार शिक्षावत, इस प्रकार बारह व्रत धारण करना चाहिये । यह दूसरी व्रत प्रतिमा है ।। ३३ ।। पश्चात् समय समय पर अर्थात् तीनों संध्याओं में धर्म की खान स्वरूप सामायिक करना चाहिये। यह तृतीय सामायिक प्रतिमा है। फिर समस्त पर्वों में प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी के दिन कर्मरूपी वन को भस्म करने के लिये अग्निस्वरूप प्रोषध करना चाहिये। यह चतुर्थ प्रोषध प्रतिमा है ||३४|| तदनन्तर afer वस्तुओं का त्याग करना चाहिये । यह पञ्चम सचित्त त्याग प्रतिमा है । फिर रात्रि में अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना चाहिये । यह ९. घर्मम् २. संदेश सिओ शिटा गहा य उवसमो भत्ती । बच्छरलं प्रयुकंपा प्रट्टगुणान्ति सम्मत्ते ( वसुनन्दि श्रावकाचार }
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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