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पार्श्वनाथचरित
के साथ उस तपस्वी ने उन्हें भी काट डाला । पाश्र्वनाथ ने दयाई भाव मरते हुये दोनों नाग युगल को णमोकार मन्त्र सुनाया जिसके प्रभाव से वह युगल जोड़ी धरणेन्द्र और पद्मावती हुए ।
दूसरी घटना उनके दीक्षा जीवन के बाद की है। जब संवर देव ने तप साधना में लीन उन पर घोर उपसर्ग किया तथा उनको तपस्या से डिगाना चाहा। उस समय धरणेन्द्र पद्मावती ने आकर उपसर्ग सहते हुए पार्श्वनाथ की रक्षा की। उक्त दोनों ही घटनाओं का पार्श्वनाथ चरित में अच्छी तरह वर्णन किया गया है।
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अन्य धर्मों की स्थिति
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वैसे तो पार्श्वनाथ चरित में जैनधर्म की प्रमुखता बतलायी गयी है, उस समय सभी देशों एवं नगरों में जैनधर्म का प्रचार था। नगरों में जिन मन्दिर थे जहाँ श्रावक एवं श्राविकाएं बड़े उत्साह के साथ पूजा पाठक र आचार्य एवं मुनियों का नगरों में बिहार होता रहता था तथा उनके नगर प्रवेश के अवसर पर शानदार स्वागत होता था। स्वयं काशी देश के महाराजा जैनधर्मानुयायी थे, इसलिये भ० पार्श्वनाथ को किसी नये धर्म की स्थापना नहीं करनी पड़ी; किन्तु तीर्थंकर नेमिनाथ द्वारा प्रतिपादित धर्म का ही देश में प्रचार प्रसार करते रहे तथा धर्म में जो शिथिलता आयी उसे दूर किया। लेकिन जैनधर्म के अतिरिक्त भी देश में एक और धर्म था जो वैदिक धर्म ही हो सकता है। कमठ राजा अरविन्द द्वारा अपमानित एवं देश निष्कासित किये जाने के पश्चात् भूताद्रि पर्वत पर जिस रूप में तप करने लगा था वह जैनधर्म के अनुसार नहीं था । इसी तरह पार्श्वनाथ की अपने नगर के बाहर पंचाग्नि तप करते हुए तपस्वी से भेंट हुई थी। उक्त प्रसंग ये बतलाते हैं कि देश में जैनधर्म के अतिरिक्त वैदिक धर्म का भी खूब प्रचार था और उस धर्म के साधुओं को तपस्या आदि की पूरी स्वतन्त्रता थी । तत्कालीन सामाजिक स्थिति
पार्श्वनाथ चरित्र के आधार पर तत्कालीन सामाजिक स्थिति के सम्बन्ध में जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार नागरिक वृद्धावस्था आने के पूर्व ही गृहस्थावस्था त्याग दिया करते थे । दुष्टजनों को राजा गधे पर चढ़ा कर देश निकाला दिया करता था। मानव हत्या सबसे बड़ा अपराध माना जाता था । तपस्वी जीवन व्यतीत करने वाले कमठ को अपने भाई की हत्या के अपराध में तपस्वियों ने उसे अपने आश्रम से निकाल दिया था ।
नगर में साधुओं के आने पर गृहस्थ जन उनसे अपने पूर्व भवों के बारे में प्रश्न पूछते और जगत की क्षणभंगुरता जानने के पश्चात् वे स्वयं भी साधु जीवन ग्रहण कर लेते। जैनधर्म का व्यापक प्रचार था तथा ब्राह्मण वर्ग के अतिरिक्त सभी वर्ग जैनधर्म का पालन करते थे । १
बालकों को पढ़ाने के लिये जैन अध्यापकों के पास भेजा जाता था तथा उसे आगम, अर्थशास्त्र शस्त्र विद्या, कला और विवेक आदि की शिक्षा दी जाती थी। अष्टाह्निकाओं में मन्दिरों में विशेष पूजा होती थी । महिलायें जब जिन मन्दिर जाती थीं तो वे वस्त्र आभूषणों से पूर्ण अलंकृत होती थीं । विवाह आदि शुभ अवसरों पर मन्दिरों में विशेष पूजन आदि का आयोजन होते थे । *
धार्मिक वातावरण का समाज में विशेष जोर था। साधु सेवा की ओर जनता का विशेष लक्ष्य रहता था । आचार्य एवं मुनि अपने प्रवचनों से नरकों की यातना तथा स्वर्ग सुख के बारे में वर्णन करके समाज को शुभ मार्ग की ओर चलने की प्रेरणा देते रहते थे । १. चतुर्थ सर्ग - १४ २. चतुर्थ सर्ग ५२-५४
३. वही ४४-४८
४. १० वां सर्ग २२