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।। श्रीपाश्र्वनाथाय नमः ।। भट्टारक श्री सकलकीति विरधित श्री पार्श्वनाथ चरित
प्रथम सर्ग नमः श्री पार्श्वनापाय विश्वविघ्नोपनाशिने । त्रिजगत्स्वामिने मूर्ना ह्यमन्तमहिमात्मने ।।१।। जित्वा महोगसन्यिो ज्योतिदेवकृतान भुवि । स्ववीयं केवलं व्यक्तं पके घेरे' तमदतम् ।।२।। यनामस्मृतिमात्रेण विघ्नाः कार्यविनाशिनः । विलीयन्तेऽखिला नृणां सुमन्त्रेण विषाणि || परयो दुनिवारा हि त्यक्त्वा बेरं ब्रजन्त्यहो । बन्धुभावं सतां नूनं यन्नामजपनेन हि ॥४॥ क्षुद्रा देवा दुराचारा: पीडयन्ति न जातुचित् । जीवा: सिंहादयो यस्य चरणान्वितचेतसाम ।।५।। असाध्या दुष्करा रोगाः सर्वे यान्ति क्षणात् क्षयम् । यन्नामभेषजेनापि तमासिमानुना यथा ॥६॥
___टीकाकार द्वारा मंगलाचरण पाव जिनमिनं नौमि जीयबारिज-सन्ततेः । दुःखदावानलोत्तप्त-भव्य-धारिवसंनिभम् ॥ मोह-महातम-दलन-दिन, तपलक्ष्मी भरतार। ते पारस परमेस मुझ, होहु सुमति दातार ॥१॥ वामानन्दन कल्पतरु जयो जगत हितकार । मुनिजन जाकी पासकरि जाई,सिबफलसार'।२।
समस्त विघ्नों के समूह को नष्ट करने वाले, तीनों जगत के स्वामी तथा प्रनम्त महिमास्वरूप श्री पार्श्वनाथ भगवान् को मैं शिर से नमस्कार करता है ।।१॥ उपोतिकोष के द्वारा किये हुए महान् उपसर्गों को जीत कर जिन्होंने पृथिवी पर केवल अपना प्रनम्त बल प्रकट किया था उन पाश्चर्यकारक श्री पाश्र्व जिनेन्द्र की मैं स्तुति करता है ॥२॥ जिनके नाम स्मरण मात्र से मनुष्यों के कार्य को नष्ट करने वाले समस्त विघ्न उस तरह नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार उत्तम मन्त्र से विष नष्ट हो जाते हैं ।।३॥ अहो! प्राश्चर्य है कि जिनका नाम अपने से दुनिवार शत्रु दरभाव छोड़कर निश्चित ही सत्पुरुषों के बन्धुपने को प्राप्त होते हैं ॥४॥ जिनके चरणों में वित्त लगाने वाले पुरुषों को दुराचारी शुद्ध देव तथा सिंहादिक जीव कभी पीडित नहीं करते ॥५॥ जिनके नामरूपी प्रौषष मात्र से भी
१. च+ईडे स्तौमीत्यर्थः २, ३५ ३. कवि भूधरदास कृत ।