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________________ ७२ ] avarastraमुखः पाताघोघरापृष्ठ कण्टकसंकीर्णां महीं प्राप्यातिवेगत: उत्पत्य स पतत्येव बहुधा कुधरातले असिपत्रवनाकी ह्ययः कण्टकदुर्गमाम् अत्यन्तशीत संख्याप्तः कृत्स्नदुःखेकमातरम् प्रचण्डानिर्दयान्यापपण्डितान् क्रूरमानसान् | भीमोग्रान् हुण्डसंस्थानान् रौद्रध्यानपरायणः । । ५५ सर्वामनोज्ञताधारान् स्फुलिङ्गसदृशेक्षणान् । नारकान् दुःखसंपूर्णान् परपोडाविधायिनः ॥५६ ।। वैतरण्यादिकं चान्यादृष्टपूर्वं विलोक्य सः । भयकम्सिर्वाङ्गो मानसेनातिचिन्तयेत् ॥५७॥ दुःस्पर्धा पृथिनी केयं ह्येते के नारकाः खलाः । एते के गृदुद्धगोमायुस र्पशार्दूल मण्डलाः ॥५८॥ कोsहं कस्मादिहायात मानीतः केन कर्मणा । न कोऽपि स्वजनश्चाश्रारोन्दिना दृश्यते क्वचित्।। ५६ ।। १ * श्री पार्श्वनाथ चरित * ॥५०॥ | वृश्चिकं क सहस्रौघसंस्पर्शाधिकवेदने | उत्पतेत्स रुदन् दीनः शतपञ्चकयोजनात् ।। ५१ । । | लुत्कुच्छिन्नभिन्नाङ्गो वृक्षात्पतितपत्रवत् ॥५५॥ | प्रत्यन्तपूतिबीभत्स वसासूक्कमिकर्दमाम् ॥। ५३ ।। 1 श्वभ्रभूमि विलान्येव कारागाराधिकानि च ।। ५४ ।। प्रधिक वेदना वाले पृथिवी तल पर नीचे पड़ा । नीचे पड़ते समय उसके पैर ऊपर थे और मुख नीचे की ओर था ।।४६ - ५०॥ वामय कांटों से युक्त भूमि को प्राप्त कर वह वीन हीन भील का जीव रोता हुआ पांच सौ योजन ऊपर उछला ।।५१॥ अनेकों बार उछल कर वह उसी निन्द्य पृथ्वी तल पर पड़ता था। पड़ते समय उसका शरीर छिन्न भिन्न हो जाता था तथा वृक्ष से पड़े हुए पत्र के समान उसी पृथिवी पर वह लोटने लगा या ।। ५२ ।। जो प्रत्यन्त दुर्गन्धित तथा ग्लानि से युक्त थी, जहां चर्बी, खून और कीड़ों की कीचड़ faeमान थी, जो प्रत्यन्त शीत की वाघा से व्याप्त थी और समस्त दुःखों की एक माता थी, ऐसी नरक भूमि को, कारागार से अधिक दुःख देने वाले विलों को, क्रोधी, निर्वय, पापनिपुण, क्रूरचित्त, अत्यन्त भयंकर, हुण्डक संस्थान के धारक, रौद्रध्यान में तत्पर सम्पूर्ण कुरूपता के आधार, अग्नि के तिलंगा के समान नेत्रोंवाले, दुःख से परिपूर्ण तथा दूसरों को दुःखी करने वाले नारकियों को, और दूसरे लोगों ने जिसे पहले कभी नहीं देखा था ऐसी वैतरणी प्रादि को देखकर जिसका समस्त शरीर भय से कांप रहा था ऐसा वह नारकी मन से विचार करने लगा ।।५३-५७।। दुःखदायक स्पर्शवाली यह पृथिवो कौन है ? ये वुष्ट नारको कौन हैं ? ये गीध, शृगाल, सांप, शार्दूल और कुक्कुर कौन हैं ? मैं कौन है ? प्रौर किस कर्म के द्वारा यहां आया हूँ, शत्रुओं के बिना यहां कहीं कोई स्वजन विखाई नहीं देता । इत्यादि विचार करने १. मानसेऽतिविचिन्तयेत् स्व ० २ कुक्कुराः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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