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________________ ७ षष्ठ सर्ग * सत्समां विक्रियां कतु समर्थो विकिद्धितः । गमनादिकजां सोऽधान ता निकारण क्वचित् ।।४।। बिहात्तोतुङ्गदेहोऽसौ स्वाङ्गभूषणदीप्तिभिः । पुण्यभूतिरिव प्राभात्तजः पुजोऽथवा महान् ॥४१॥ सप्तविंशति- 'बारायायु: पगः । रोगलेशविषादादिदुःखहीनो भजेत्सुखम् ।।४।। गतवर्षसहस्र: स सप्तविंशतिसंख्यकैः ।भुक्त तृप्तिकरं दिव्यं हृदाहारं सुधामयम् ॥४३॥ तावस्पर्गते नमुछ वासं लभते मनाक 1 सुगन्धीकृतदिग्भागं सोऽखिलामयवजितः५ ॥४४।। शमानन्दभवं शर्म लभेत मुनिरुत्तमम् ।निरोपम्यं यथा तद्वद्धोनरागश्च सोऽमरः ।।४५।। परमानन्दजं सौख्यं कृत्स्नचिन्तातिगं महत् । भूजानोऽसौ न जानाति गतं कालं शुभाषितम् ।।४६।। प्रथ भिल्लः स पापात्माने करोगातिपीडितः । रौद्रध्यानेन संत्यज्य प्राणान् भुक्त्वाऽसुरवं महत् ।।४।। मुनिहत्याजपापौघ प्रारमारेणातिभारितः । निमग्नोऽखिलदुःखालय सप्तमे श्वभ्रसागरे 11४८1। तत्रोपपाददेशे समस्ताशर्मनिधानके । अन्त महतंकालेनाप्य पूर्ण कुत्सितं वपुः ।।४।। द्रव्यों को जानता है ॥३६॥ विक्रिया ऋद्धि से उतनी ही दूर तक की विक्रिया करने में समर्थ है परन्तु कारण के बिना वह अहमिन्द्र कहीं भी गमनादिक से होने वाली विक्रिया को नहीं करता है । दो हाथ ऊंचे शरीर वाला यह देव अपने शरीर सम्बन्धी प्राभूषणों की दीप्ति से ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसे पुण्य की मूर्ति ही हो अथवा तेज का महान समूह ही हो ॥४०-४१॥ सत्ताईस सागर की प्रायु से युक्त, समस्त विघ्नों से दूर और रोग, क्लेश तथा विषाद प्रादि के दुःखों से रहित वह अहमिन्द्र सदा सुख का उपभोग करता था ॥४२।। सत्ताईस हजार वर्ष बीत जाने पर वह तृप्ति को करने वाला अमृतमय मानसिक आहार प्रहरग करता था ॥४३॥ तथा समस्त रोगों से रहित वह महमिन्द्र सताईस पक्ष बीत जाने पर विग्विभागों को सुगन्धित करने वाला किञ्चित् श्वासोच्छ्वास लेता था ॥४४।। जिस प्रकार मुनि शान्तिरूप प्रानन्द से उत्पन्न होने वाले उत्तम सुख को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार अल्प राग से युक्त वह अहमिन्द्र निरुपम सुख को प्राप्त हो रहा था ॥४५॥ परमानन्द से उत्पन्न तथा समस्त चिन्तामों से रहित महान सुख को भोगता हुआ वह अहमिन्द्र पुण्योपाजित बीते ए काल को नहीं जानता था । भावार्थ-सुख में निमग्न रहने से वह, यह नहीं जान सका कि मेरा कितना काल व्यतीत हो चुका है ।।४६।। तदनन्तर वह पापी भील अनेक रोगों की पीड़ा से पीडित होता हुआ बहुत भारी दुःख भोग कर रौद्रध्यान से भरा और मुनि हत्या से उत्पन्न होने वाले पाप के भारो भार से निखिल दुःखों से युक्त सप्तम नरकरूपी सागर में निमग्न हो गया । भावार्थ - मुनि हत्या के पाप से सातवें नरक गया ॥४७-४८॥ वहां समस्त दुःखों के निधानभूत उपपादशय्या पर अन्तर्मुहूर्त में निन्दनीय पूर्ण शरीर प्राप्त कर वह एक हजार बिच्छुओं के स्पर्श से भी १. सप्तविंशतिमागरमितावुष्कः २. भवे व मुस्त्रम् स्व० ३. मानयिकाहारं ४ अमृतमयं ५ मोऽखिलामायवरितम् ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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